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समाज

आंखों में आंसू और हाथ में दीया लेकर हम शिक्षकों ने मनाई थी दीपावली

Janjwar Team
19 Oct 2017 4:06 PM GMT
आंखों में आंसू और हाथ में दीया लेकर हम शिक्षकों ने मनाई थी दीपावली
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हम अकसर त्यौहारों पर खुशियों की बातें करते हैं, करनी भी चाहिए पर उन दुख की बातों को कब कहें जिनसे हम दो चार हुए थे...

चतुरानन ओझा

मैं उन दिनों गोरखपुर मंडल के एक स्ववित्तपोषित कॉलेज में पढ़ाता था। वह मेरी पहली दिवाली थी और मैं दीपावली के कारुणिक और अपमानजनक अनुभव से कॉलेज छोड़ने को मजबूर हुआ था।

कॉलेज में 2 वर्ष तक पढ़ाने के बाद भी शिक्षकों का वेतन भुगतान नहीं होना और उसकी कोई प्रणाली नहीं विकसित हो पाने और तो और त्योहारों के मौके पर भिखारियों जैसी स्थिति से अपमान का बोध गहराता जा रहा था।

हमारे कॉलेज में कठोर परिश्रम और लगन से शिक्षण कार्य करने के बाद भी शिक्षकों के पास वेतन के रूप में सिर्फ कोरे आश्वासन थे। प्रबंधक अपने महंगे शौक पूरे करने में लगा था और शिक्षकों के वेतन मांग को बहुत ही हिकारत की निगाह से देखता था।

दीवाली की छुट्टियां हो जाने के बाद भी वह प्रतिदिन त्यौहारी के रूप में कुछ धन देने के लिए हमें कॉलेज आने को कहता और सभी शिक्षक छुट्टियों में भी कॉलेज पहुंच रहे थे। छुट्टियों में कई दिन दीनदयाल महाविद्यालय पहुंचने पर भी जब सेलरी नहीं मिली तो प्रबंधक ने दिवाली के दिन भी हम शिक्षकों को कॉलेज आमंत्रित किया।

दिवाली में सब अपने घरों में थे, मगर हम शिक्षक महाविद्यालय सेलरी की आस में पहुंचे थे। अनुमोदित शिक्षक के रूप में 1 वर्ष तक कार्य करने के बाद यह पहली दीवाली थी, बहुत उत्साह था सभी मास्टरों में कि इस दिन मिले पारिश्रमिक से वह अपने घर परिवार के बीच अच्छी दिवाली मनाएंगे किंतु ऐसा नहीं हो सका।

हमें कॉलेज बुलाकर प्रबंधक अपने परिवार के साथ दिवाली मनाने में व्यस्त हो गया और महाविद्यालय आने में अपनी असमर्थता जता दी। हम उस समय किस दयनीय, अभाव और अपमान से भरे थे, यह सिर्फ वही अनुभव कर सकता है जो इस स्थिति से गुजरा हो।

हम शिक्षकों के पास अपने गुस्से का इजहार करने का कोई तरीका नहीं था। हमारे बीच की एक महिला शिक्षक फफक कर रो पड़ी थी। उसने रोते बिलखते हुए आज वेतन मिलने की उम्मीद पर बच्चों से किये गये वायदे गिनाये, नये कपड़े, मिठाइयों एवं पटाख़ों की लिस्ट दिखाई।

उसने बताया कि कैसे वह पैसे के अभाव में दिवाली के पहले की कोई तैयारी नहीं कर पायी थी। उसने कहा कि क्या यही दिन देखने के लिए हमने ऊंची पढ़ाई की थी। उसने यह भी कहा कि हम भीख मांगने नहीं आये थे।

दिवाली के दिन की इस घटना ने हमें बहुत मर्माहत किया। हमने निश्चय किया कि जब तक किसी मानक के अनुरूप वेतन भुगतान निश्चित नहीं होगा कॉलेज नहीं आयेंगे। मैं लौटकर दुबारा उस महाविद्यालय नही गया। फिर थोड़ा बहुत आजमा कर सभी ने उस संस्था को छोड़ दिया।

कॉलेज के खिलाफ हमने शासन तक शिकायती पत्र लिखे, धरने दिये और आश्वासन हासिल किए, मगर स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। पूरी तरह शिक्षकविहीन वह महाविद्यालय फलता—फ़ूलता रहा।

बाद में पता चला कि अनुमोदित शिक्षकों को वेतन न देना उन्हें अपने आप कॉलेज छोड़ देने को मजबूर करने का आसान तरीका है, जिसे देवरिया जिले के लगभग सभी महाविद्यालय के प्रबंधक अख्तियार करते हैं।

बाद में दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय गोरखपुर के दूसरे महाविद्यालयों में भी बड़ी उम्मीद से अनुमोदन कराया गया, किंतु बिना शिक्षक शिक्षा पढ़ाई हो जाती है और परीक्षा भी।

जब भी दीपावली आती है,स्ववित्तपोषित महाविद्यालय और उनके शिक्षक याद आते हैं। इसके साथ ही याद आती हैं पिछले दस वर्षों में बदलती रंग—बिरंगी सरकारें।

वर्ष बदले सरकारें बदलीं, किन्तु नहीं बदली स्ववित्तपोषित शिक्षकों की नियति। उच्चशिक्षा बनी उनके लिये अभिशाप और नहीं आई उनके लिए दीवाली! (फोटो प्रतीकात्मक)

(चतुरानन ओझा स्ववित्तपोषित महाविद्यालय शिक्षक एसोसिएशन से जुड़े हैं।)

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