बायोमेडिकल वेस्ट फैलाकर किस स्वच्छता मिशन की वकालत कर रहे हल्द्वानी के डॉक्टर
दोहरा चरित्र अब नहीं रही बीमारी, कहते हैं मनोचिकित्सक इसे स्वीकार्य मानक मान लिया है हमारे समाज ने...
हल्द्वानी से संजय रावत
जनज्वार, उत्तराखंड। उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में हल्द्वानी एक ऐसा शहर है जो पिछले 20-25 सालों में कस्बे से शहर में तब्दील होना शुरू हुआ, पर तब्दीली की रफ्तार इस कदर गतिमान थी कि कस्बा कब राज्य की आर्थिक राजधानी बना, कब महानगर बना पता ही नहीं चला।
मानसिक बीमारियां भी ऐसी जिन्हें अब समाज में बीमारीं नहीं 'जीने की कवायद' कहा जाता है। ये तो मोटा मोटी बात है मेरे शहर हल्द्वानी।
खैर हुआ यूं कि पिछली 5 नवम्बर को सुबह 6:30 बजे शहर भर के डॉक्टर एक साथ एक चौराहे पर दिखे तो हैरानी हुई। सोचा पूछें कि हुआ क्या है। स्कूटी किनारे लगा हेलमेट संभालने तक देखा डॉक्टर्स मुंह में मास्क पहन चुके थे। फिर पॉलीथीन की बड़ी सी थैलियां ले सड़क का कूड़ा बीनने लगे।
हैरानी और गुस्से में पूछ लिया जाकर कि क्या आप सफाई की एवज में नगर निगम को टैक्स नहीं देते। सब मेरी तरफ ऐसे मुखातिब हुए जैसे मैं किसी दूसरे ग्रह का जीव हूँ।
वहां माथा पच्चीसी से कुछ होना नहीं था, हां ये जरूर पता चला के 'अपर जिलाधिकारी' डॉक्टर्स को नगर निगम की तरफ से झाड़ू देने आने वाले हैं। घर पहुंचते ही मैने भी एडीएम साहब को फोन लगाया और बोला कि साहब झाड़ू देने के बाद डॉक्टर्स के कान में हल्के से बोलना कि शहर की सफाई की डॉक्टर्स को चिंता है और वे वाकई जनता का भला चाहते हैं तो बस 3 बातों को अमल में ले आएं :
- बायोमेडिकल वेस्ट को नदियों में न फेंके।
- अपने अपने क्लीनिक या नर्सिंग होम में जो मेडिकल स्टोर खुलवाये हैं वहां जेनरिक मेडिकल स्टोर खुलवा दें।
- बीमारियों के जांच परीक्षण के लिए पैथोलॉजी लैब से 50 प्रतिशत कमीशन बंद कर मरीज का आर्थिक भार कम कर दें।
एडीएम साहब ने दिलासा दिया भी। अब रोज़ स्थानीय अखबारों के पन्ने रंगे हैं कि 'बायोमेडिकल वेस्ट नदी में फेंकने पर गाड़ियां पकड़ी गयीं, 91 अस्पतालों को भेजे गए नोटिस' वगैरह—वगैरह।
लगे हाथ काउंसलर (मनोचिकित्सक) से भी पूछ लिया कि ये कैसा दोहरा चरित्र है डॉक्टर्स का कि एक तरफ झाड़ू मारकर जन जागरूकता की बात कहते हैं और दूसरी तरफ बायोमेडिकल वेस्ट से शहर को प्रदूषित कर रहे हैं।
ये बुद्धिजीवी डॉक्टर्स अगर ठीक हैं तो, कहीं मैं तो मानसिक बीमार नही हूँ। काउंसलर साहब ने फरमाया कि बेशक ये दोहरा चरित्र है, पर समाज में जब 90 प्रतिशत लोग जिस बात को अचेतन तौर पर ठीक समझते हैं वही मानक बन जाता है। इसलिए अब समाज में दोहरे चरित्र को बीमारी नहीं माना जाता।