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जनज्वार विशेष

जीएसटी के कारण उजड़ने लगी है लखनऊ की चिकन कारीगरी

Janjwar Team
1 Aug 2017 12:51 PM GMT
जीएसटी के कारण उजड़ने लगी है लखनऊ  की चिकन कारीगरी
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करोड़ों का विज्ञापन कर विकास और समृद्धि के हवाई दावे करने वाले मोदी और उनके मंत्रियों से कोई पूछे कि लखनऊ के चिकनकारी कारीगरों के मुंह से निवाला छीनकर किसके प्रगतिपथ का रास्ता तैयार कर रहे हैं

कारीगरों के बीच से लौटकर अनुराग अनंत की रिपोर्ट

चिकनकारी का हुनर शाहजहां की बेगम नूरजहां के साथ ईरान से पंद्रहवीं शताब्दी में भारत पहुंचा और मुग़ल सभयता की केंद्र रहीं रियासतों में फ़ैल गया। सबसे ज्यादा उसे लखनऊ में संरक्षण मिला, जिसके चलते चिकन अवध की सांस्कृतिक पहचान के रूप में उभरा।

उसी पहचान को जानने पेंचीदा दलीलों—सी उलझी हुई गलियों से होते हुए हम शाहिदा के कमरे पर पहुंच चुके थे। उसका पति सिक्योरिटी गार्ड है और शाहिदा चिकनकारी की कारीगर। शाहिदा की दो लड़कियां और एक लड़का है, जिन्हें लेकर पति—पत्नी उन्नाव से यहाँ लखनऊ में आ बसे हैं।

शाहिदा बताती हैं, उनके जैसे सैकड़ों परिवार हैं जो आसपास के जिलों के गाँव से आकर रोजगार के लिए यहां बस गए हैं। कहती हैं, 'चिकन का काम ही हमारा रोजगार है। इसमें महिलाएं ज्यादा हैं। चूंकि अपने घर बैठे ही इसे करना है, इसलिए भी औरतों के लिए चिकन का काम सबसे अच्छा है। यह चिकनकारी का काम नहीं, हमारे जीने का सहारा है।'

शाहिदा एक सांस में सबकुछ उड़ेल देना चाहती है। उसकी आवाज में 'चिकनकारी' शब्द ऐसे सुनाई देता था कि आप उसकी जिंदगी में इस शब्द की अहमियत का अंदाजा आसानी से लगा सकते हैं। कितना कमा लेतीं हैं? के सवाल पर कुछ देर चुप हो जाती है शाहिदा।

पहले चिकनकारी टैक्स के दायरे में नहीं आता था, जीएसटी आने के बाद एक हज़ार से कम के सामान पर 5 फीसदी और उससे ऊपर पर 12 फीसदी टैक्स लगेगा। इस कर व्यवस्था के लागू होने के बाद चिकनकारी के सबसे बड़े गढ़ लखनऊ में चिकन के बाजार और दुकानदारों-कामगारों की हालत बद से बदतर होने लगी है।

फिर कहती है, '2500-3000 कमा लेते हैं महीनाभर में, रोज आठ-नौ घंटा लगातार काम करते हैं तो। मगर इधर एक महीने से ज्यादा समय हो गया, काम नहीं आ रहा है। 800-900 रुपया ही कमा पाए हैं। मालिक लोग कहते हैं डिमांड कम है जीएसटी है कुछ, वो लग गया न...' शाहिदा को जीएसटी के बारे में नहीं मालूम पर उसके असर के बारे में मालूम है।

यहां जीएसटी का असर नापने का पैमाना अलग ही है। शाहिदा कहती है, “यहाँ कपड़ों की दुकानों में रौनक कम हो गयी है। बिक्री घटी है। सबका काम भी घटा है। कोई नहीं कमा पाया इस महीने, सब दिक्कत में हैं। बच्चों की फीस और कमरे का किराया अदा करना भी मुश्किल रहा इस महीना। ये जीएसटी बहुत बुरी बला है।'

हम शाहिदा से जितना पूछ सकते थे उतना पूछ चुके थे और वो हमें जितना बता सकती थी बता चुकी थी। पर उसकी जिंदगी की परशानी और सपनों की कवायद इस पूछने-बताने से बयां नहीं हो सकती थी। हम इसे केवल महसूस कर सकते थे और हमने उसे महसूस किया था इसलिए रास्ते भर हमारी तासीर बदली रही।

हम वहां से सीधा सुमित्रा के यहाँ पहुंचे। सुमित्रा के घर पर ही मालती भी थी। ये दोनों महिलाएं चिकनकारी महिला कामगार संगठन से जुडी हुई हैं। दोनों सीतापुर की हैं और शाहिदा की तरह ही अपने जिले से यहाँ काम के लिए आकर बसी हैं।

सुमित्रा यहां मार्केट से आर्डर लेती है और गाँव में अन्य महिलाओं से काम कराकर दुकानों में माल पहुंचा देती हैं। इस तरह गाँव में महिलाओं को काम और कुछ पैसा मिल जाता है। संगठन में लगभग 200 सदस्य हैं और समय समय पर ये संगठन महिलाओं को चिकनकारी का प्रशिक्षण भी देता रहता है।

मालती बताती है, 'जीएसटी के बाद से दुकानदार अपना पुराना स्टॉक निकालने के चक्कर में हैं। इसलिए नए आर्डर नहीं मिल रहे हैं। पिछेले एक महीने से कोई काम हम गाँव नहीं ले गए हैं।" बात को बीच में काटते हुए सुमित्रा कहतीं हैं, 'ये जीएसटी हम कारीगरों के लिए बहुत ख़राब है। हम ही मारे जा रहे हैं। दुकानदार कहते हैं जीएसटी की वजह से दाम बढ़ गया है, हम क्या करें दाम ज्यादा बढ़ा तो सकते नहीं, थोड़ा तुम लोग समझो थोड़ा हम समझते हैं।'

गौरतलब है कि चिकनकारी के कारीगरों का शोषण पहले से ही होता रहा है। ये बहुत बड़ा असंगठित व्यापार क्षेत्र है, जहाँ किसी प्रकार का लेबर कानून नहीं है। क्योंकि सब काम ठेके पर होता है और ठेके का कोई कागजी सुबूत नहीं होता। सब काम जुबानी और आपसी समझ के आधार पर होता है।

यहाँ स्पष्ट रूप से न कोई एम्प्लॉयर है न इम्प्लॉय। इसलिए जवाबदेही का निर्धारण नहीं हो पता। एक कुशल कारीगर की मासिक आमदनी 2500-3000 के बीच होती है, जिसके लिए उसे रोजाना 9-10 घंटे काम करना होता है।

सेल्फ-एम्प्लॉयड वुमेन एसोसिएशन (sewa) चिकन, लखनऊ की रूना बनर्जी बताती हैं, "लखनऊ में चिकनकारी और जरदोजी का बहुत बड़ा कारोबार है। देश के महानगरों से लेकर अमेरिका, इंग्लैण्ड और अरब देशों तक यहाँ का चिकन भेजा जाता है। बॉडीवुड सितारे भी लखनऊ से चिकन के कपडे मंगाते हैं। लगभग साढ़े पांच लाख लोगों को इससे रोजगार मिलता है, जिसमे तीन लाख कारीगर हैं। जिनमे महिलाओं की संख्या ढाई लाख के आसपास है। इन महिलाओं में ज्यादातर मुस्लिम होतीं हैं।

रूना कहती हैं, 'मुस्लिम महिलाओं को घर बैठे काम मिल जाता है, इसलिए वो कम पैसे में काम करने को भी तैयार हो जातीं हैं। आप कारीगरों के शोषण का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि एक सेट सलवार-कुर्ता, जिसमें अच्छा-ख़ासा काम है और मार्केट में जिसकी कीमत पंद्रह हज़ार रुपये या इससे ज्यादा हो सकती है, उसके लिए कारीगर को महज पांच-सात सौ रुपये मिलते हैं। जबकि उसे इस काम को पूरा करने में आठ से दस दिन लग जाते हैं।"

जीएसटी के असर के बारे में पूछने पर रूना कहतीं हैं, 'कारीगर (ज्यादातर महिलाएं) असंगठित हैं और ऊपर से गरीब और मजबूर भी, इसलिए मजदूरी बढ़ाने के लिए नहीं कह पाएंगी बल्कि जीएसटी आने के बाद इनका शोषण बढ़ जायेगा। मजदूरी कम दी जाएगी और कारण जीएसटी को बताया जायेगा।'

सेवा चिकन की सहसंस्थापक सेहबा हुसैन कहतीं हैं, 'चिकन कारीगरों के पास कोई मॉडल नहीं है। सरकार को इनकी स्थिति सुधारने के लिए बीच से बिचौलिए हटाने और श्रम कानूनों को सख्ती से लागू कराने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। जहाँ तक जीएसटी का इनके जीवन पर प्रभाव का सवाल है, जीएसटी के नाम पर इनके पैसे काटे जायेंगे। फिलहाल तो इनके आर्डर में पचहत्तर फीसदी तक गिरावट आयी है और इस महीने कमाई एक चौथाई ही हुई है। अब अगले महीने कारीगर कम दाम पर भी काम को तैयार हो जाएँगी, यही नई पगार होगी।"

सरकारें जब नियम कानून बनाती हैं, तो ये पेंचीदगी उनके ख़याल में नहीं रहती होंगी या फिर सरकार की दिलचस्पी ही नहीं होगी गरीबों के लिए पैदा होने वाली इन पेंचीदगियों में। हमने जितने भी चिकनकारी कारीगरों से बातें कीं, यही पता चला कि ये कानून मेहनतकशों की जिंदगी में थोड़ी और पेंचीदगी बढ़ा दे रहे हैं। उनकी जिंदगी को थोड़ा और कठिन कर दे रहे हैं। उनके सपनों को उनकी पहुंच से कुछ और दूर कर दे रहे हैं। उनके दर्द को सिर्फ एक रिपोर्ट में दर्ज करना नामुमकिन है।

सलमा कहती है, "जबसे नोट बंदी भै है, उभरिन नै पाई रहन है भईया' शाहिदा के पति को नोटबंदी के दौरान तनख़ाह पुराने नोटों में दी गई। रात में वो काम करता, दिन में पैसे बदलता। मालिक लोग भी पैसे बदलवाते। रात—दिन ठीक से नहीं सोने की वजह से पति बीमार हो गया और हज़ारों रुपये लग गए। मालिक ने नोटबंदी में शाहिदा के भी पैसे मार लिए थे। अबकी बार भी शाहिदा डरी हुई है। सलमा परेशान है, यही आलम कमोबेश हर कामगार—मेहनतकश मजदूर के साथ है।

चिकनकारी के कारीगरों से मुलाकात के बाद हमने दुकानदारों का रुख जानना चाहा और हम हजरतगंज, अमीनाबाद और चौक के कुछ दुकानदारों से मिले। चौक में हयात चिकन शॉप के कलीम अहमद लम्बी दाढ़ी, पैजामा-कुर्ता और टोपी लगाए गद्दी पर बैठे थे। हालचाल पूछते ही बिफर पड़े। कहने लगे 'आप क्या कर लेंगे अगर हालत खराब होगी।'

जब उन्हें बताया हम पत्रकार हैं, आपके हालात को लोगों तक पहुचायेंगे, तो कहने लोग 12 फीसदी टैक्स नहीं देना चाहते और चिकन का ज्यादातर सामान 1000 रुपए से ऊपर का ही होता है इसलिए वो 1000 रुपए से कम वाले कपड़ों की ओर रुख कर रहे हैं। हमें तो अपने वर्कर और कारीगरों का पैसा निकालने में मुश्किल हो रही है।'

हज़रतगंज में कपूर चिकन शूटिंगस वाले राजेंदर कपूर खासे गुस्से में कहते हैं, 'इसलिए वोट नहीं दिया था मोदी को। पनामा पेपर कहा गए पता नहीं चला, सहारा गेट का क्या हुआ पता है? कितना रुपया नोटबंदी में आया और उसका क्या हुआ राम जाने, राबर्ट वाड्रा जेल नहीं गया, बस सीधे—सादे लोगों को परेशान करना है और कुछ नहीं। हम व्यापारियों ने भी मोदी को वोट दिया था, इसलिए नहीं दिया था कि वे जीएसटी के नाम पर हमें परेशान करें।'

राजेंदर के पिता जी वहीं बैठे थे। उन्होंने राजेंद्र की बात ख़तम होते ही अपने बात शुरू कर दी, 'साल 2003 में अटल जी की सरकार में यशवंत सिन्हा तब फाइनेंस मिनिस्टर थे, उन्होंने चिकन पर टैक्स लगाना चाहा था तब अटल जी ने कहा था ये असंगठित बाजार है। टैक्स से गरीब कारीगर को समस्या होगी और इससे भी ज्यादा पहले से ही मुश्किल झेल रहे चिकन पर टैक्स लादकर इसका खतरा और नहीं बढ़ाना है। चिकन अवध की सभ्यता संस्कृति की पहचान है।'

उन्होंने चिकन कारोबारियों और कारीगरों को हो रही मुश्किलों के लिए पूरी बात में मोदी का नाम नहीं लिया था, पर उनके स्टेटमेंट में एक अंडरटोन थी 'मोदी अटल नहीं हैं.'

अमीनाबाद के नूर आलम की नूर चिकन गारमेंट्स नाम की दुकान है। वो कहते हैं, "चिकन का काम पहले ही लोग छोड़ रहे थे अब और मुश्किल होगी। ये शौकीनों का कपड़ा है और इस जमाने में शौक़ीन कम बचे हैं, इसलिए चिकन पर भी अज़ाब है। हमारे लिए जीएसटी वैसे ही है जैसे किसी इंसान को टीबी हो जाए और रोग उसे धीरे—धीरे खत्म कर दे।'

कारीगरों के शोषण के जवाब में वो बिफरते हुए कहते हैं, आप कहते हैं दुकानदार शोषण करते हैं कारीगरों का, अरे जनाब कुछ करने को नहीं है इसलिए ये काम कर रहे हैं, बहुत दौलत नहीं है इसमें। हम पैसे फंसाते हैं, अपनी तरफ से कारीगरों को पैसे देते हैं और माल लादे बैठे रहते हैं। अब जीएसटी से और परेशानी है। रजिस्ट्रेशन और ड्रामेबाजी अलग। जो 1200 का कुरता था लगभग 1400 का हो गया, कौन खरीदता है भाई? एक महीने से भूखों मर रहे हैं कारीगर और दुकानदार, जाकर लिख देना।'

साथ में खड़े सुहेल खान कहते हैं, "ये सरकार एक एजेंडे पर काम कर रही है और जिस जिस क्षेत्र में ख़ास मजहब के लोग ज्यादा काम करते हैं, उन्हें तबाह किया जा रहा है। उन्हें माली तौर पर कमजोर करने के लिए। चाहे चमड़े का काम हो, गोश्त का काम हो, लखनवी चिकन हो या बनारसी साड़ी।' नूर आलम, सुहेल खान को आँखों से इशारा करते हैं और फिर दोनों चुप। हमारे कुछ और पूछने पर "भाईजान आपको सबकुछ बता दिया" का जवाब मिलता है.

मार्केट में कुछ और दुकानदारों से बात करने पर पता चलता है कि दुकानदारों ने जीएसटी के शुरुआती दिनों में बांह में काली पट्टी बांध के जीएसटी का विरोध किया, जीएसटी कमिश्नर से भी मिले और फिर अपने काम पर लग गए। उनके लिए व्यापार ज्यादा जरूरी है, राजनीति उनसे नहीं हो पायेगी। क्योंकि वो तो किसी तरह अपना काम चला ही लेंगे। असली गाज तो चिकन कारीगर महिलाओं पर ही गिरनी है।

बीता महीना चिकन के बाजार, दुकानदार और कारीगरों के लिए ठीक नहीं रहा। बाजार गिरा रहा और दुकानदार और कारीगर कई तरह की सोच और शंकाओं से घिरा रहा। ये गिरावट और घेरावट आगे क्या रंग लाएगी, ये तो भविष्य ही बताएग

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