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शिक्षा

गोरखपुर विश्वविद्यालय में प्रवेश के नए नियम से होगा छात्रों को नुकसान

Janjwar Team
12 Oct 2017 8:27 PM GMT
गोरखपुर विश्वविद्यालय में प्रवेश के नए नियम से होगा छात्रों को नुकसान
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बीए, बीकाॅम, बीएससी आदि कक्षाओं में पढ़ाई के लिए ग्रामीण इलाके की छात्राओं को किसी दूसरे जिले के ग्रामीण इलाके में जाकर पढ़ाई करने का आदेश दिया जाएगा तो यह अव्यावहारिक कदम ही होगा....

गोरखपुर से चक्रपाणि ओझा की रिपोर्ट

गोरखपुर के दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय ने बीते दिनों एक बड़ा फैसला लिया है। नए फैसले के अनुसार विश्वविद्यालय समेत सभी संबद्व कॉलेजों में प्रवेश के लिए एक केंद्रीय स्तर पर प्रवेश परीक्षा आयोजित की जाएगी और उसी मुताबिक विश्वविद्यालय और संबंद्ध महाविद्यालयों में प्रवेश होगा।

विश्वविद्यालय अगर आगामी सत्र से यह प्रक्रिया प्रारंभ करने में सफल हो जाता है तो प्रदेश का यह पहला विश्वविद्यालय होगा जहां इस तरह की प्रवेश की नई परंपरा शुरू होगी। अब तक ऐसी परीक्षाएं यूपीटीयू या दूसरे व्यावसायिक कोर्स में हुआ करती थी, जो राज्य स्तर पर आयोजित होती हैं। हालांकि इसके पूर्व भी इस तरह का एक असफल प्रयोग गोरखपुर यूनिवर्सिटी में हो चुका है। गोरखपुर विश्वविद्यालय से लगभग तीन सौ कॉलेज संबद्व हैं। इनमें अनुदानित, वित्तविहीन व स्ववित्तपोषित कॉलेज हैं।

विश्वविद्यालय प्रशासन मान रहा है ऐसा नियम लागू करने से उच्च शिक्षा में सुधार होगा।

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कितना सुधार होगा यह तो समय बताएगा, लेकिन सच्चाई यह है कि ऐसा करने से छात्रों के लिए एक नई मुसीबत खड़ी होगी। जो छात्र-छात्राएं अपनी सुविधानुसार नजदीक के कॉलेजों में प्रवेश पा लेते थे उन्हें अब काउंसलिंग के बाद आवंटित कॉलेज में ही दाखिला लेने के लिए मजबूर होना होगा।

ऐसे में दो बड़ी मुश्किलें आएंगी। पहली मुश्किल उन छात्रों को होगी जो गोरखपुर और आसपास के जिलों के आकर गोरखपुर अपनी पढ़ाई व प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते हैं। उन्हें मजबूरन उन कॉलेजों में प्रवेश लेना होगा जहां उनका ग्रेड आएगा। पर हालत यह है कि मंडल में गोरखपुर छोड़कर ऐसा कोई जिला नहीं है जहां कॉलेज भी जाए और साथ में अन्य तैयारियां भी कर सके। साथ ही ज्यादातर प्राइवेट कॉलेज, जो कि पूरे मंडल में सर्वाधिक हैं, वहां पढ़ाई के नाम पर शिक्षक और सुविधाएं नहीं हैं।

दूसरी बड़ी परेशानी उन छात्राओं को होगी जो स्नातक की पढ़ाई करने में इसलिए सफल हो जातीं हैं कि उनके आसपास में कॉलेज की सुविधा उपलब्ध है। अगर बीए, बीकाॅम, बीएससी आदि कक्षाओं में पढ़ाई के लिए ग्रामीण इलाके की छात्राओं को किसी दूसरे जिले के ग्रामीण इलाके में जाकर पढ़ाई करने का आदेश दिया जाएगा तो यह अव्यावहारिक कदम ही होगा।

विश्वविद्यालय प्रशासन के इस कदम से ग्रामीण अंचल की छात्राओं का उच्च शिक्षा में प्रवेश बाधित हो सकता है। इसका परिणाम यह होगा कि अभिभावक भी उनकी सुरक्षा और खर्च आदि के मद्देनजर अगर काॅलेज दूर मिलता है तो प्रवेश दिलाने से कतराना शुरू कर देंगे। इन सबके बावजूद अगर छात्र-छात्राओं ने प्रवेश ले भी लिया तो उनको अधिक खर्च उठाना पड़ेगा।

विश्वविद्यालय का यह फैसला ऐसे समय में आया है जब प्रदेश सरकार ने स्नातक तक छात्राओं को निःशुल्क शिक्षा देने की बात कर रही है। यह फैसला छात्राओं के बढ़ते कदम को रोकने वाला प्रतीत होता है। समान और पड़ोसी स्कूल की शिक्षा व्यवस्था लागू करने में अक्षम तंत्र अब असमान और दूरस्थ शिक्षा की व्यवस्था कर रहा है। यह चिंताजनक है।

विश्वविद्यालय के इस फैसले पर जब छात्रों की राय जानने का प्रयास किया गया तो वे असमंजस की स्थिति में थे। काॅलेजों में पढाने वाले कई अध्यापक भी इसे अव्यावहारिक बता रहे हैं। वहीं स्ववित्तपोशित-वित्तविहीन महाविद्यालय शिक्षक एसोसिएशन के प्रवक्ता डाॅ चतुरानन ओझा कहते हैं कि जब पूरा शिक्षातंत्र ही खस्ताहाल है तो किसी जुगाड़ू तकनीकी के सहारे भला उच्च शिक्षा को कैसे ठीक किया जा सकता है।

जब विश्वविद्यालय संबद्व सैकडों की संख्या में कॉलेजों शिक्षक विहीन हों, पढाई के नाम पर नकल कराने की व्यवस्था सुनिश्चित हो, शासनादेशों का खुलेआम उल्लंघन हो रहा हो ऐसे में किसी अनावश्यक तौर तरीकों से न तो उच्च शिक्षा की सेहत ठीक की जा सकती है और न ही समाज की। यह फैसला मूल सवालों से ध्यान भटकाने वाला है।

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कुल मिलाकर काॅलेजों में शिक्षकों की कमी और उचित संसाधनों के अभाव को दूर किए बगैर किसी नीम-हकीमी नुस्खों के बल पर उच्च शिक्षा की वर्तमान स्थिति को ठीक करना संभव नहीं प्रतीत होता है। बेहतर यह होता कि विश्वविद्यालय अपने सभी संबद्व कॉलेजों में शिक्षकों की व्यवस्था करता, पढ़ाई लिखाई का वातावरण निर्मित करने के लिए काॅलेजों पर सख्ती करता और नियमों के अनुसार समान काम का समान वेतन, सस्ती और समान शिक्षा की व्यवस्था करता तो इस तरह के फैसलों की जरूरत ही नहीं होती है।

(चक्रपाणि ओझा पतहर पत्रिका के सह संपादक हैं।)

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