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बाल काटने की घटना पर आप कुछ सोचें और बहकें उससे बेहतर है कि सीधे मनोचिकित्सक से जानिए कि आपके आसपास जो सनसनी फैली है, उसमें हकीकत कितनी है और हवाबाजी कितनी...
डॉ. चंद्रशेखर तिवारी, वरिष्ठ मनोवैज्ञानिक
बाल कटवा की बात में कितनी सच्चाई
इस बारे में दो—तीन संभावनाएं हैं। इसमें एक कारण मास हिस्टीरिया है। पहले भी जैसे हम देखते हैं कि कुछ साल पहले मंकीमैन वाली घटना हुई थी दिल्ली में, गणेश जी के दूध पीने की घटना हुई थी। मैं यह कहना चाहता हूं कि ऐसी घटनाओं में मास हिस्टीरिया जैसा बन जाता है जिससे एक पैनिक क्रिएट हो जाता है। जैसे आप मुझसे ही इस बारे में बात कर रही हूं, तमाम न्यूज चैनलों में ये बातें आ रही हैं, तो कहीं न कहीं हमने इन सब चीजों को अटेंशन देनी शुरू कर दी है।
मनोवैज्ञानिक भाषा में समझें
एक फेज होता है डिसोसिओसिस फेज, जब इंसान अपनी कांसेसनेस (सचेतनता) से थोड़ा हट जाता है। ये इसलिए होता है जब किसी को लगातार नैगलेक्ट (उपेक्षित) किया जा रहा हो और इंसान अटेंशन चाहता हो। जब ऐसी घटनाएं सामने आती हैं तो हमको थोड़ी अटेंशन मिलनी शुरू हो जाती है। ये लक्षण आप अपने आसपास, रिश्तेदारी या फिर घर में भी देख सकते हैं। कई बार मेरे पास ऐसे पेशेंट आते हैं, जिन्हें अचानक बेहोशी आने लगती है। बेहोशी आने से पहले तक जो पति उनको पूछता तक नहीं था, बीमारी के बाद उनका अतिरिक्त ख्याल रखने लगता है। हालांकि इसे हम ये कहेंगे कि ये वो जान—बूझकर नहीं करते बल्कि अनइंटेंशली (अचेतन) यह सब होता है। इसे अब कि घटना के साथ जोड़ें तो यह एकाध लोगों के साथ तो हो सकता है, मगर जो मास लेबल पर हो रहा है, 15—20 लोग इससे प्रभावित बताए जा रहे हैं ये तो मास हिस्टीरिया टाइप बन गया है, लग रहा है लोग अटेंशन पाने के लिए ऐसा कर रहे हैं। जैसे तमाम न्यूज चैनल इंटरव्यू कर रहे हैं, पुलिसवाले घटना की छानबीन कर रहे हैं, कहीं न कहीं सेलिब्रेटी जैसे बन गये हैं ये लोग।
ऐसी घटनाएं सिर्फ गरीबों की बस्ती में ही क्यों
गरीब लोग अपनी मूलभूत जरूरतों में ही इतने उलझे होते हैं कि कहीं अटेंशन पाने का तो सवाल ही नहीं उठता। मध्यम और उच्च वर्ग की तो मूलभूत जरूरतें पूरी हो ही जाती हैं, तो उन्हें आमतौर पर ऐसी अटेंशन की जरूरत महसूस नहीं होती, क्योंकि उन्हें और कई तरीकों से अटेंशन मिल जाती है। 'बलकटवा गिरोह' के प्रचार के बाद, जो इस काम में लगा है उसको भी और जो प्रभावित है वह उसे भी, जस्ट लाइक सेलिब्रेटी फील हो रहा होगा, उन्हें इंपोर्टेंस मिल रही है। लेकिन इसके नकारात्मक परिणाम भी आने लगे हैं, जैसे कि वृंदावन में घटित घटना। एक बुजुर्ग महिला जब सुबह—सवेरे शौच के लिए बाहर निकली तो उसको बाल काटने वाली चुड़ैल, भूत—प्रेत समझकर इतना मारा गया कि उसकी जान ही चली गई।
मास हिस्टिरिया को भूत समझने की आम प्रवृति
हमारी सोसायटी बड़ी ट्रेडिशनल है। देवी—देवताओं, भूत—प्रेत, चुड़ैल—डायन को मानना बहुत आम है। ऐसी घटना को तो छोड़ ही दीजिए ये उस मामले में भी देखा जा सकता है जब इंसान कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी से जूझ रहा होता है या फिर उसे मानसिक रूप से बड़ी बीमारी हो गई है, वो भी डॉक्टरों से पहले इनके दरवाजे पर मत्था टेक चुके होते हैं। हमारे वहां भी मानसिक रूप बीमार जो मरीज आते हैं वो पहले बाबा, हकीम वगैरह के पास जाके, चूरन आदि खाके आए होते हैं, फिर इलाज करवाते हैं। भारत की जो मानसिक प्रवृत्ति सदियों—दशकों से बन चुकी है, उसमें लोग इन सब बातों पर लंबे टाइम से विश्वास ये कहें कि अंधविश्वास करते आ रहे हैं। अंधविश्वास में लोगों को लगता है कि पहले पूजा—पाठ, भूत—प्रेत आदि को ही पूज लिया जाए, क्या पता इससे ही हमारी समस्या का समाधान हो जाए। मगर अंतोत्गतवा ऐसा होता नहीं।
दुनिया के दूसरे देशों में भी होता है
ब्रिटेन में एक ऐसी घटना शायद चालीस के दशक में सामने आई थी कि हैमर से एक इंसान लोगों पर वार कर रहा है और उनकी जान ले रहा है। मगर जब इस घटना की छानबीन हुई तो पता चला कि लोगों ने खुद ऐसी घटनाओं को अंजाम दिया था। तब वहां पर जिन लोगोंं ने पैनिक क्रिएट किया, सिस्टम के साथ खिलवाड़ करने की कोशिश की उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की गई थी।
आखिर इससे लाभ किसको मिलेगा
सबसे पहले ऐसा ह्यूमर सोशल मीडिया पर फैला था और फिर टीवी चैनलों पर। तो जाहिर सी बात है कि इसका फायदा मीडिया उठाएगा। मगर घटना को इतना ज्यादा कवरेज मिलने से परेशानियां कम होने के बजाए बढेंगी ही। पुलिस का काम प्रभावित होगा। घटना को भूत—प्रेत, चुड़ैल की तरफ मोड़ा जा रहा है, जिससे कि टीआरपी बढ़े। इस पर सब चैनलों पर शाम को स्पेशल प्रोग्राम देखे जा सकते हैं, एक पैनल स्पेशली इस इश्यू पर डिसकस कर रहा होता है। कई बार ऐसी घटनाओं का फायदा उठाकर इनमें एंटी सोशल एलिमेंट भी इनवॉल्व हो जाते हैं। दंगाई भी शामिल हो जाते हैं। सरकार और समाज के प्रति गुस्सा भी ऐसी घटनाओं के रूप में फूटने लगता है, लॉ एंड आॅर्डर का पालन नहीं होता।
ऐसी घटनाओं को रोकाने का ठोस उपाय
ऐसे मामलों में चाहिए कि इनका अनावश्यक प्रचार न किया जाए, जिससे कि लोगों में कम से कम दहशत पहुंचे। मीडिया को अपनी टीआरपी को दरकिनार कर ऐसी घटनाओं को प्रचारित करने से पहले सजग होकर काम करना चाहिए। जो जरूरी चीजें हैं जैसे पुलिसिया छानबीन, मनोचिकित्कों से प्रभावित लोगों की काउंसलिंग, उन्हें दवाएं मुहैया कराना ये सब बहुत जरूरी है।
(डॉ. चंद्रशेखर तिवारी विमहांस दिल्ली में वरिष्ठ मनोचिकित्सक हैं।)