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विमर्श

पत्रकारिता में नौकरी के लिए काबिलियत से ज्यादा नेटवर्किंग की जरूरत

Janjwar Team
20 Jun 2017 10:59 AM GMT
पत्रकारिता में नौकरी के लिए काबिलियत से ज्यादा नेटवर्किंग की जरूरत
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सैल्फी पत्रकार या पत्रकारिता के मातम के साथ एक बार संपादकीय संस्था का मातम भी यदि संपादक झा कर लेते तोे शायद उनके सपनों की पत्रकारिता पैदा हो सकती थी.....

विष्णु शर्मा

एक कार्यक्रम में इण्डियन एक्सप्रेस के संपादक राजकमल झा की सेल्फी पत्रकारों की आलोचना प्रासंगिक होते हुए भी, एक सतही टिप्पणी है। तो भी पत्रकारिता में उसूलों की बात करने वाले न्यायपसंद लोगों को पत्रकारिता में ’कुछ’ बचे हुए होने का भरोसा दिलाया। संपादक झा का सत्ता के सामने सच अथवा स्पीकिंग ट्रूथ टू दी पावर बी वाला वीडियो इतना लोकप्रिय रहा कि एनडीटीवी के रवीश कुमार ने टिप्पणी को अपनी स्वयं की पत्रकारिता के सही होने के प्रमाणपत्र के तौर पर प्राइम टाइम में अच्छी जगह दी।

संपादक झा की बातों में ऐसा कुछ नहीं था, जिस पर किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को आपत्ति करनी चाहिए। पत्रकारिता के विधार्थियों को पहली कक्षा में यही सिखाया जाता है कि सरकार पर आलोचनात्मक नजर रखना ही पत्रकारिता है।

लेकिन क्या पत्रकारों को ज्ञान देना, उनके ‘जमीर’ को जगाना या गाहे बगाहे उन्हें ‘दलाल’ या ‘सेल्फी पत्रकार’ और न जाने क्या क्या कहकर शर्मिंदा करने से ही पत्रकारिता को सुधारा जा सकता है? क्या आज की पत्रकारिता के गिरे हुए स्तर के लिए मात्र पत्रकार जिम्मेदार हैं? क्या एक अदद पत्रकार पत्रकारिता का अंतिम सच है? संपादक झा ने अपने वाकचातुर्य में इन गंभीर प्रश्नों को छिपा दिया। शायद इसलिए कि इन प्रश्नों की गंभीर पड़ताल उन्हें भी कठघरे में खड़ा करती है।

पिछले दो दशक में पत्रकारों की सत्ता के साथ नजदीकियां उनके कैरियर के लिए एक जरूरी शर्त बना दी गई हैं। बिना सत्ता के आशीर्वाद के इस पेशे में किसी पत्रकार का टिका रहना और आगे बढ़ते रहना लगभग असंभव है। एक्सक्लूसिव और टीआरपी पत्रकारिता ने पत्रकार के लिए सत्ता के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने को आवश्यक बना दिया है। और उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर किया है संपादक झा साहब की बिरादरी के ही लोगों ने। इसलिए झा साहब को पत्रकारों से अधिक अपने ही वर्ग के लोगों से यह सवाल पूछना चाहिए। लेकिन शीर्ष पर एक षडयंत्रकारी चुप्पी है और संपादक झा भी खामोश हैं।

अन्य मीडिया संस्थाओं की बात छोड़कर सिर्फ एनडीटीवी या इण्डियन एक्सप्रेस के प्रबंधन पर और उसके कर्मचरियों पर एक सरसरी नजर डालने से पता चलता है कि इन समूहों में शायद ही ऐसे पत्रकार हैं जो किसी नेटवर्क के बिना यहां बने हुए हैं। एनडीटीवी सत्ता में दखल न रखने वाले किसी भी पत्रकार को इंटर्न या ट्रेनी से उपर का स्पेस ही नहीं देता। यही हाल इंडियन एक्सप्रेस में है। यहां पहुंचने के लिए सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़ा होना, जिसे मीडिया समूहों की भाषा में ‘रिसोर्स पर्सन’ होना कहा जाता है, बेहद जरूरी है।

एनडीटीवी तो इस बात के लिए बदनाम ही है। हाल में जो एनडीटीवी के साथ हुआ (सीबीआई) उससे पूरी संवेदना रखते हुए यह कहना पड़ रहा है कि जो उसके साथ हो रहा है वह उसका ही किया हुआ है। अर्णव गोस्वामी, सुहासनी हैदर, सोनिया सिंह, सागरिका घोष, बरखा दत्त कोई भी नाम जो एनडीटीवी से कभी जुड़ा था या जुड़ा है सभी नेटवर्किंग के कारण ही वहां पहुंचे थे, रहे और आगे बढ़े। जिनके पास कोई नेटवर्क नहीं है या जिसने यह नहीं बनाया, वो काॅपी ही जांचते रह गए।

दिल्ली में ऐसे कई पत्रकार दोस्तों से रोजाना मिलना होता है जिन्हें संपादक झा की भाषा में सैल्फी पत्रकार कहा जा सकता है। वे रोज अपने फोटो किसी बडे अधिकारी या नेता के साथ साझा करते हैं और लाईक पाते हैं। लेकिन ये पहले से ऐसे नहीं थे। जब रामनाथ गोयनका जैसे संपादक रहे होंगे, जो संपादक झा के अनुसार, किसी नेता के तारीफ करने भर से पत्रकार को काम से निकाल देते था, उस वक्त ये भी वैसे ही पत्रकार रहे होंगे जिनकी तलाश आज संपादक झा को है।

छोटे—छोटे शहरों से आने वाले ये सारे लोग पत्रकारिता की नैतिकता का बोझ लिए ही दिल्ली पहुंचे थे। लेकिन 10-10 साल संघर्ष के बावजूद काम को लेकर कभी सुरक्षित महसूस नहीं कर पाए। उनके बाद इस क्षेत्र में प्रवेश करने वाले दिल्ली के लोग देखते ही देखते उनसे आगे निकल गए। क्यों? क्योंकि संपादक झा और प्रणय राॅय को रिसोर्स पर्सन चाहिए थे, पत्रकार नहीं।

एक उदाहरण के लिए संपादक झा को नेपाल के मामले पर हमेशा राजतंत्र के पक्षधर युवराज घिमिरे क्यों दिखाई देते हैं? या फिर पूर्व भारतीय राजदूत या राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की क्यों दिखाई पड़ते हैं। नेपाल को क्या यही लोग समझते हैं?

उस दिन अपने भाषण में सैल्फी पत्रकार या पत्रकारिता के मातम के साथ एक बार संपादकीय संस्था का मातम भी यदि संपादक झा कर लेते तोे शायद उनके सपनों की पत्रकारिता पैदा हो सकती थी। लोग तो बताते हैं कि उनके अपने हिन्दी अखबार के हालात ठीक नहीं है।

संपादक झा, हमारी पत्रकारिता का असली चेहरा यह है और आप बात उसूलों की कर रहे हैं। पत्रकारों को उसूलों का पाठ पढ़ाने से पहले आपको जिमखाना, इण्डिया इंटरनेशनल सेन्टर या हैबीटेट क्लब में अपने ही सहगोत्रीय भाइयों की क्लास लेनी चाहिए।

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