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विमर्श

अमरनाथ यात्री बस ने किसकी शह पर किया था हर कानून का उल्लंघन

Janjwar Team
16 July 2017 6:26 PM GMT
अमरनाथ यात्री बस ने किसकी शह पर किया था हर कानून का उल्लंघन
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आतंकी हमले में शिकार हुए गुजरात के तीर्थयात्रियों की बस आखिर किसकी शह और इशारे पर बिना परमीशन, बिना रजिस्ट्रेशन, नियमों का उल्लंघन करते हुए रात को 8 बजे अमरनाथ की ओर बढ़े जा रही थी। इस सवाल ने अबतक चली आ रही हमले की थ्योरी को सिर के बल खड़ा कर दिया है...

मुनीष कुमार

दस जुलाई की रात्रि लगभग 8 बजे अमरनाथ तीर्थयात्रियों से भरी चलती बस पर दो मोटरसाईकिलों पर आए 4 आतंकवादियों ने कश्मीर के अनंतनाग के समीप गोलियों से हमला कर दिया। इस हमले में 7 तीर्थयात्री मारे गये तथा डेढ़ दर्जन से अधिक घायल हो गये। हमलावर गोली चलाकर फरार हो गये।

बस ड्राइवर सलीम मिर्जा ने अचानक हुए इस हमले में अदम्य साहस का परिचय दिया तथा बस को 3 किलोमीटर तक नहीं रोका अन्यथा कई अन्य जानें भी जा सकती थीं। गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रुपानी ने बस ड्राइवर सलीम मिर्जा का नाम वीरता पुरुस्कार के लिए नामित किया है।

सुरक्षा बलों ने इस हमले के लिए आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा को जिम्मेदार ठहराया, जबकि लश्कर ने इस हमले की निन्दा करते हुए हमले में अपना हाथ होने से इंकार किया है। तीर्थयात्रियों पर हुए इस हमले की देश में सर्वत्र निन्दा हो रही है। कश्मीर के अवाम व हुर्रियत नेताओं ने इस हमले की कड़े शब्दों में की है। हमले के विरोध में देश के साथ-साथ कश्मीर में भी विरोध प्रदर्शन हुए हैं। सुरक्षा बलों को हमलावरों को गिरफ्तार करने में अभी तक कामयाबी नहीं मिल पायी है।

इससे पूर्व वर्ष वाजपेयी सरकार के समय में 2000—2001 में भी कश्मीर में तीर्थयात्रियों पर हमले हो चुके हैं। वर्ष 2000 के हमले में 21 तीर्थयात्री मारे गये थे तथा 26 घायल हुये थे तथा 2001 के हमले में 6 तीर्थयात्री मारे गये तथा 8 घायल हुए थे। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने हमले के बाद कश्मीरी जनता द्वारा घायलों की मदद व हमले के खिलाफ कश्मीरी जनता के रुख की सराहना की।

अमरनाथ तीर्थयात्रा सुरक्षा बलों के सख्त पहरे में प्रायोजित की जाती है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि अमरनाथ तीर्थ यात्रियों पर हुए इस हमले के लिए कौन जिम्मेदार है।

हिन्दुस्तान टाइम्स ने तीर्थयात्रियों पर हुए हमले को लेकर कई सवाल खड़े किए हैं। उसका कहना है कि जिन वाहनों पर तीर्थयात्री चलते हैं उन्हें श्राइन बोर्ड से रजिस्टर्ड होना अनिवार्य है। गुजरात न. की बस जी.जे 09 जेड 9976 जो कि रस्टिर्ड नहीं थी, को चलने की इजाजत किसने दी। बालटाल में सुरक्षा बंदोबस्त बेहद कड़े हैं, उसके बावजूद भी बस तीर्थयात्रियों को लेकर आगे बढ़ती गयी।

रास्ते में पड़ने वाले चैक पोस्टों पर इस बस को क्यों नहीं रोका गया। बगैर रजिस्ट्रेशन के चल रही इस बस को जम्मू-कश्मीर की पुलिस पैट्रोल क्यों कर रही थी। सूर्य छुपने यानी शाम 5 बजे के बाद यात्रा मार्ग पर तीर्थयात्रियों को चलने की इजाजत नहीं है। ऐसे में रात्रि 8 बजे बस यात्रियों को लेकर क्यों जा रही थी। इस हमले को गुजरात विधानसभा चुनाव से भी जोड़कर देखा जा रहा है।

गुजरात में कुछ दिनों बाद विधानसभा के चुनाव होने हैं। चुनाव में भाजपा की हालत पतली बतायी जा रही है। पाटीदार समाज व दलित मतदाता भाजपा से पहले से ही नाराज हैं। कपड़ा व्यवसाय को जीएसटी के दायरे में लाए जाने को लेकर गुजरात के कपड़ा करोबारियों में भी सरकार के खिलाफ गुस्सा है, वहां पर जीएसटी के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं।

अमरनाथ यात्रा के दौरान जिस बस पर हमला हुआ है उसमें सवार ज्यादातर तीर्थयात्री गुजरात के ही हैं। इस हमले के बाद से गुजरात की जनता अब सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ नहीं, आतंकवादी हमले के खिलाफ सड़कों पर है।

इसीलिए कहा जा रहा है ‘सम थिंग इज फिसी’, ‘दाल में जरूर कुछ काला है।’

कश्मीर में पूर्व के कई आतंकवादी हमलों की सच्चाई आज तक सामने नहीं आ पायी है इसीलिए सिविल सोसाइटी का एक धड़ा तीर्थयात्रियों पर हुए हमले की किसी स्वतंत्र एजेन्सी से निष्पक्ष जांच की मांग कर रहा है।

वर्ष 2000 में अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की भारत यात्रा से पूर्व अनंतनाग जिले के छत्तीससिंहपुरा गांव में हुए सिक्ख नरसंहार पर से परदा आज तक नहीं उठ पाया है। 36 सिक्खों के नरसंहार के लिए सुरक्षा बलों ने जिन 6 लोगों को पाकिस्तानी आतंकी बताकर एनकाउन्टर किया था, वे तो आम निर्दोष कश्मीरी ही थे।

वर्ष 1998 में गांदरबल के समीप वन्धामा में कश्मीरी पंडितों के 4 परिवारों का नरसंहार करने वाले आतंकवादियों को पुलिस व सुरक्षा एजेन्सियां आज तक नहीं पकड़ पायी हैं। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या सुरक्षा एजेन्सियां अमरनाथ तीर्थयात्रियों पर हुए हमले के वास्तविक अपराधियों को सामने ला पाएंगी।

कश्मीर साम्प्रदायिक भाईचारे की मिसाल रहा है। मुश्किल से मुश्किल दौर में भी कश्मीर में कभी साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ। 10 जुलाई को अनंतनाग में हुए हमले के बाद कश्मारियों ने न केवल हमले में घायल लोगों की सहायता की, बल्कि समूचे कश्मीरी समाज ने इस हमले की निन्दा करते हुए जगह-जगह प्रदर्शन भी किए।

परन्तु जिस तरह से कश्मीरी समाज ने तीर्थयात्रियों पर हुए हमले पर प्रतिक्रिया दी है, भारत के लोग कभी भी इस तरह से कश्मीर के लोगों के साथ खड़े नजर नहीं आते। पिछले वर्ष कश्मीर में अमरनाथ तीर्थयात्रियों की दुर्घटनाग्रस्त बस के घायलों को मदद के लिए सबसे पहले कश्मीरी ही पहुंचे थे।

कश्मीर को भारत सरकार ने डिस्टर्ब एरिया घोषित किया हुआ है। वहां पर आर्म्स फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट का काला कानून लागू है। हथियारों से ही नहीं, बल्कि असीमित अधिकारों से लैस 7 लाख से भी अधिक फौज कश्मीर के चप्पे-चप्पे पर लगायी गयी है। किसी के घर की बगैर वारंट तलाशी लेना, गिरफ्तार करना, यहां तक की गोली मार देने तक के अधिकार फौज को दिये गये हैं। पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत कश्मीर में किसी भी व्यक्ति को दो साल तक बगैर मुकदमा चलाए जेल में रखा जा सकता है।

पिछले वर्ष बुरहान बानी के एनकाउंटर के बाद कश्मीर में 120 नागरिक सुरक्षा बलों के हाथ मारे गये। 2000 लोगों की आंखें पैलेट गन का निशाना बन गयीं। 16 हजार लोग घायल हो गये, 8000 लोगों को जेलों में ठूंस दिया गया। नौजवानों को इन्ट्रोगेशन सेंटरों में ले जाकर यातनाएं दी गयीं। कश्मीर को भारत का अभिन्न हिस्सा मानने वाले भारतवासियों का इसको लेकर उनके मुंह में दही जम गया।

यदि आज कश्मीर के लोग जनमत संग्रह चाहते हैं और भारत से अलग होना चाहते हैं तो इसके लिए हम भारतवासी भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। भारत के लोग कश्मीर को तो अपना मानते हैं, परन्तु कश्मीरियों को नहीं।

भारत के लोग कश्मीरियों को अपने मकान में किराए पर आसानी से जगह देने के लिए तैयार नहीं होते हैं। कश्मीरी पूछते हैं कि आप कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानते हैं, यदि आपकी कोई बाजू मरोड़ दे तो क्या बाकी जिस्म में दर्द नहीं होगा। जब हम कश्मारी भारत का हिस्सा हैं तो हमारे ऊपर अत्याचार होने पर शेष भारत के लोग हमारे पक्ष में क्यों नहीं बोलते, तब उन्हें दर्द क्यों नहीं होता।

कश्मीर के लोगों का कहना है कि वर्ष 2012 में दिल्ली में निर्भया गैंगरेप के खिलाफ पूरे देश में प्रदर्शन हुए, कश्मीरियों ने भी इसके खिलाफ आवाज बुलन्द की। परन्तु सुरक्षा बलों के कुछ जवानों ने वर्ष 2009 में सोफियां में दो कश्मीरी लड़कियों नीलोफर, उम्र 22 वर्ष व आशियां, उम्र 17 वर्ष की बलात्कार के बाद हत्या कर दी, तब देश के लोगों ने इसके खिलाफ प्रदर्शन क्यों नहीं किए।

हमारे देश के अधिकांश लोग अपने वतन के पुजारी बन चुके हैं। सही व गलत को परख कर सही के पक्ष में खड़े होने की जगह वे अंधराष्ट्रवादी रुख अपना लेते हैं। कश्मीर के भारत में विलय के वक्त भारत सरकार ने कश्मीरी अवाम से जनमत संग्रह कराकर जनता को आत्मनिर्णय का अधिकार दिये जाने का वायदा किया था।

उसके लिए कश्मीर की राजधानी श्रीनगर व पाकिस्तान में संयुक्त राष्ट्र संघ ने दफ्तर भी खोला हुआ है। जिसको जिम्मेदारी दी गयी है कि वह भारत अधिकृत कश्मीर व पाक अधिकृत कश्मीर में निष्पक्ष जनमत संग्रह कराए। कश्मीर के लोग इसी जनवादी मांग की पूर्ति चाहते हैं।

कश्मीर समस्या देश के लिए नासूर बन चुकी है। 1989 के बाद से एक लाख से भी अधिक कश्मीरी (सैकड़ों कश्मीरी पंडितों समेत) अपनी जानें गंवा चुके हैं। हालाकि सरकारी आंकड़ों में यह संख्या कम है। एक आकलन के मुताबिक 1948 के बाद से देश के 20 हजार से भी अधिक देश के सैनिक कश्मीर पर कुरबान कर दिये गये हैं, परन्तु समस्या हल नहीं हो पा रही है।

हम सबके लिए एक-एक इंसान की जान कीमती है, चाहे वो हमारे सैनिकों की जान हो या हमारे कश्मीरी भाई की अथवा अमरनाथ यात्रा पर गये तीर्थयात्रियों की। हम हर जान की सुरक्षा चाहते हैं।

आज देश की जनता को कश्मीरियों के दुख-सुख में उनके साथ खड़े होने की जरूरत है। कश्मीर की जनता यदि शेष भारत की जनता के साथ रिश्तों की गर्माहट महसूस करेगी तो उसका मन बदल सकता है। वह जनमत संग्रह होने पर पाकिस्तान के साथ जाने अथवा आजाद हो जाने का विकल्प चुनने की जगह वह भारत में शामिल होने का विकल्प चुन सकती है।

जरुरत है कि कश्मीरी आवाम का दिल जीता जाए। कश्मीर की जनता का जनमत संग्रह में जो भी निर्णय हो, हमें कश्मीरियों की राय का बिना शर्त सम्मान करना चाहिए।

(मुनीष कुमार स्वतंत्र पत्रकार एवं समाजवादी लोक मंच के सहसंयोजक हैं।)

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