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विमर्श

संघ-भाजपा के वफादार रच रहे दलितों को उच्च शिक्षा संस्थानों से बाहर करने का षड्यंत्र

Janjwar Team
20 May 2018 9:18 PM GMT
संघ-भाजपा के वफादार रच रहे दलितों को उच्च शिक्षा संस्थानों से बाहर करने का षड्यंत्र
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ऐसा तब जबकि देश के 70 प्रतिशत प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और असिस्टेंट प्रोफेसर के पदों पर है सवर्णों का एकाधिकार, बता रहे हैं युवा दलित चिंतक रामू सिद्धार्थ

तमिलनाडु केंद्रीय विश्वविद्यालय, इंदिरा गांधी नेशनल ट्राइब्लस सेंट्रल यूनिवर्सिटी, अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय (भोपाल) और हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय को दलितों, आदिवासियों और ओबीसी शिक्षकों से वंचित करने की योजना बनाई जा रही है।

तमिलनाडु केंद्रीय विश्वविद्यालय में शिक्षकों के कुल 65 पद निकले हैं, जिसमें सिर्फ 2 पद ओबीसी के लिए आरक्षित घोषित किया गया है। अगर विभाग की जगह विश्वविद्यालय को इकाई माना जता तो कम से कम 30 पद आरक्षित होते। इस प्रकार इस विश्वविद्यालय के कम से कम 28 प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और असिस्टेंट प्रोफेसर के पदों से एससी/एसटी और ओबीसी को वंचित कर दिया गया।

इसी प्रकार इंदिरा गांधी नेशनल ट्राइब्लस सेंट्रल विश्वविद्यालय में कुल 52 शिक्षक पद विज्ञापित हुए हैं, जिसमें सिर्फ एक पद ओबीसी के लिए आरक्षित है, शेष 51 पदों को अनारक्षित घोषित कर दिया गया है। यहां भी कम से कम 25 प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और असिस्टेंट प्रोफेसर के पदों से एससी,एसटी और ओबीसी को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है।

अटल बिहारी बाजपेयी विश्वविद्यालय (भोपाल) 18 शिक्षकों का पद विज्ञापित हुआ है, जिसमें कोई भी पद आरक्षित नहीं हैं। सभी के सभी पद अनारक्षित हैं। हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय में संविदा के आधार पर 80 पद विज्ञापित किए गए हैं, इसमें से एक भी पद एससी, एसटी या ओबीसी के लिए आरक्षित नहीं है।

बीएचयू केंद्रीय विश्वविद्यालय के कम से कम 374 शिक्षक पदों से एससी/एसटी और ओबीसी संवर्ग के लोगों को कैसे शिक्षक पदों से बाहर का रास्ता दिखाने वाला विज्ञापन जारी हुआ है, इसकी विस्तार से चर्चा में अपने पहले पोस्ट में कर चुका हूं।

यही सबकुछ देश के अन्य विश्वविद्यालयों में भी हो रहा है। दुखद है कि इसकी गाहे-बगाहे चर्चा तो हो रही है, लेकिन इस प्रक्रिया को रोकने की कोई कारगर योजना नहीं बन पा रही है।

ध्यान देने की बात यह है कि ऊपर जिन चार विश्वविद्यालयों की चर्चा की गई है, उनमें से 3 केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं, जिसके सर्वोच्च मुखिया भारत के महामहिम राष्ट्रपति होते हैं।

यह सबकुछ तब हो रहा है, जबकि 2 अप्रैल को बहुजनों के ऐतिहासिक जनउभार के बाद 20 अप्रैल को यूजीसी ने इस संदर्भ में पत्र जारी कर दिया है कि 2006 के नियमों-परिनियमों के आधार पर नियुक्तियां की जाएं, क्योंकि यूजीसी और केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर की है।

लेकिन की जैसा कि हम सभी जानते हैं कि केंद्र में संघ-भाजपा और राज्यों में संघ-भाजपा की सरकार के आने के साथ ही अधिकांश कुलपति पदों पर ऐसे लोगों को बैठाया गया है, जो आरक्षण विरोधी मानसिकता के हैं, या संघ-भाजपा के वफादार सिपाही रहे हैं। वे इस मौके का फायदा उठाकर कल तक के शूद्रों-अतिशूद्रों (ओबीसी, एससी और एसटी) को उच्च शिक्षा संस्थानों से बाहर कर उच्च जातियों के लोगों को भरना चाहते हैं।

याद रहे उच्च शिक्षा संस्थानों के प्रोफेसर,एसोसिएेट प्रोफेसर और असिस्टेंट प्रोफेसर पदों पर नियंत्रण का मतलब इस देश की वैचारिकी और सोचने के तरीकों पर नियंत्रण। ज्ञान के स्रोतों पर नियंत्रण।

वैसे भी 2016-17 की यूजीसी की रिपोर्ट बताती है कि देश के 70 प्रतिशत प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और असिस्टेंट प्रोफेसर के पदों पर अनारक्षित तबकों, जिसका अर्थ आमतौर पर सवर्ण होता का नियंत्रण है।

आजादी के बाद के 70 वर्षों बाद भी भले ही राजनीति में ओबीसी और दलित समाज की हिस्सेदारी बढ़ी हुई दिखती हो, लेकिन सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन पर सवर्णों का पूर्ण वर्चस्व कायम है। उच्च शिक्षा केंंद्रों के शिक्षक पदों पर नियंत्रण इस वर्चस्व को बनाये रखने का एक कारगर उपाय है।

चार विश्वविद्यालयों के आंकड़ों की जांच के लिए 17 मई 2018 का दि इंडियन एक्सप्रेस अखबार, दिल्ली संस्करण देखें। संभव हो मेरिट के प्रश्न पर पेज-12 पर भाजपा सांसद उदित राज का लेख भी पढ़ लें।

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