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विमर्श

सांप्रदायिकता की आग में राजनीतिक रोटियां सिंकती हैं गरीबों का चूल्हा नहीं

Janjwar Team
18 May 2018 10:21 AM GMT
सांप्रदायिकता की आग में राजनीतिक रोटियां सिंकती हैं गरीबों का चूल्हा नहीं
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जिस तरह भारत में कुछ शरारती लोग सोशल मीडिया में कभी 'मक्का' में शिवलिंग बता कर अथवा ताजमहल को तेजोमय मन्दिर बताकर उन्माद एवं तनाव बढ़ाने की कोशिश करते हैं, उसी तरह का काम बांग्लादेश में भी होता है। इसी का परिणाम है कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद बांग्लादेश में अल्पसंख्यक समुदाय के लगभग ढाई हजार मकानों, 3600 पूजा स्थलों को क्षति पहुचाई तथा सैकड़ों लोगों की हत्या हुई थी...

हाल ही में बांग्लादेश यात्रा से लौटकर आए सुप्रीम कोर्ट में एडवोकेट राम मोहन राय करा रहे हैं वहां के हालातों से रू—ब—रू....

बांगलादेश की पांच दिवसीय यात्रा के दौरान कुछ अन्य बातों के अतिरिक्त एक बात हमेशा कौंधती रही कि इस सेक्युलर देश मे साम्प्रदायिक सद्भाव एवम समरसता की क्या स्थिति है। बांग्लादेश की लगभग 14 करोड़ जनसंख्या में लगभग डेढ़ करोड़ जनसंख्या हिन्दुओं की है और इसके बाद बौद्ध, सिख एवं ईसाई आबादी है।

दुनिया में हिन्दू आबादी को संख्या की दृष्टि से जानें तो यह दुनिया का भारत, नेपाल के बाद तीसरा देश है और यदि प्रतिशत के हिसाब से जाने तो यह पांचवां देश है। 1905 का बंग-भंग का दंश अंग्रजो की 'तोड़ो और राज करो' नीति ने बंगाल की इस धरती को दिया था, जिसका विरोध बंगाल के समस्त तत्कालीन नागरिकों ने मिल कर किया था।

खुद कविगुरु रबीन्द्र नाथ ठाकुर, सामान्य जनता के साथ अपने गीत एवम कविताओं का पाठ करते सड़कों पर उतरे थे, परिणाम स्वरूप अंग्रेज शासन को अपना यह आदेश वापिस लेना पड़ा था, परन्तु विभाजन का बीज तो बोया जा चुका था जिसकी परिणीति सन 1947 में भारत विभाजन के रूप में हुई।

पाकिस्तान के संस्थापक मो0 अली जिन्ना ने मजहब के नाम पर दो राष्ट्र की मांग की, जिसे हिन्दू महासभा के अनेक नेता पहले ही कर चुके थे। सम्प्रदाय के नाम पर भारत का विभाजन, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की भरसक विरोध के बावजूद हुआ।

पाकिस्तान का विश्व मानचित्र पर आना एक अजीब ही शक्ल लिए था, जिसका एक तरफ हिस्सा पूर्वी पाकिस्तान कहलवाया तथा इसके सैकड़ो मील दूर का हिस्सा पश्चिमी पाकिस्तान का नाम दिया गया। एक ऐसा देश जिसके दो हिस्सों की सीमाएं मिलती ही नहीं थी, पर जिसे मजहबी आधार पर एक कहा गया था।

इतिहास ने यहां फिर साबित किया कि धर्म को राजनीति से घालमेल एक निरर्थक एवं बकवास कवायद है, जो जोड़ने की नहीं तोड़ने का काम करती है। कायदे आज़म जिन्ना एक मजहब, एक जुबान और एक निशान पर अडिग थे जो पाकिस्तान के ही दूसरे हिस्से में रहने वाले मुसलमानों को स्वीकार नहीं थी और यहीं से दो राष्ट्र सिद्धान्त की असफलता की कहानी शुरू होती है और जिसकी परिणति हुई भाषा के नाम पर बने बांग्लादेश का अभ्युदय।

भारत विभाजन के बाद निर्दयी पाकिस्तानी सेना ने धर्म के नाम पर वर्तमान बांग्लादेश में दूसरे धर्म के अनुयायिओं पर जुल्म तश्दूद में कोई कसर नही छोड़ी। कुछ पलायन भी हुआ परन्तु वह अल्पसंख्यक आबादी जिन्होंने सन 1947 में ही तहिय्या कर लिया था कि किसी भी कीमत पर अपनी मातृभूमि को नही छोड़ेंगे, विवश नहीं कर सके।

1947 का विभाजन का मंजर बहुत ही यातनापूर्ण था। पंजाब, सिंध, बंगाल से करोड़ों लोगों की अदला बदली हुई थी। हजारों लोग मारे गए थे, अरबों रुपये की संपत्ति का नुकसान हुआ था, मां -बहनों की इज्जत लूटी गई थी। ऐसे हालात में देश को आज़ादी मिली थी।

देश का पिता महात्मा गांधी 15 अगस्त, 1947 को आज़ादी के जश्न में शामिल न होकर दिल्ली से सेकड़ो मील दूर कोलकाता में साम्प्रदायिक सद्भाव के लियेअपनी जान कुर्बान करने को तत्पर था। एक प्रश्न तथा उसका एक ही जैसा उत्तर इधर -उधर दोनों तरफ है कि जब धर्म के नाम पर बटवारा हो ही गया था तो बटवारे के समय सभी हिन्दू हिंदुस्तान क्यों नही चले गए, तो उसका जवाब भी वैसा ही है विभाजन का फैसला राजनेताओं का राजनीतिक फैसला था उनका नहीं। यह देश उनकी मातृभूमि है, यह उनकी पुरखों की धरती है वे इसे छोड़ कर क्यों जाए? यह उनका देश है, यहीं पैदा हुए थे यही मरेंगे।

1971 में निर्दयी निरंकुश सत्ता से पश्चिमी पाकिस्तान के लोगों को मुक्ति मिली। बांग्लादेश के प्रथम प्रधानमंत्री शेख मुजीबुर्रहमान ने घोषणा की कि नवोदित बांग्लादेश बेशक मुस्लिम बाहुल्य देश होगा, परन्तु यह अन्य सभी धर्मों का आदर करेगा तथा सभी धर्मों को अपना प्रचार प्रसार करने की पूरी छूट होगी।

समूचा बंगाल, वर्तमान सन्दर्भ में बांगलादेश प्राचीन काल से सर्वधर्म समभाव का केंद्र रहा है। प्राचीन मंदिर, गुरुद्वारे, चर्च एवं बौद्ध विहार यहां की एक सुंदर अनुपम विरासत रही है। ढाका में माँ जगदम्बा का ढाकेश्वरी मन्दिर, मां काली मंदिर, चैतन्य महाप्रभु की माई का मन्दिर, गुरु तेग बहादुर महाराज द्वारा गुरु नानकदेव जी महाराज की याद में बनवाया 'नानकशाही गुरुद्वारा ' तथा सन 1661 के आस पास बनी चर्च ऐतिहासिक ही नहीं अपितु सभी धर्मों के लोगों के लिये आस्था के केंद्र है।

इतना ही नही बांग्लादेश के कोई छोटा बड़ा कस्बा नही होगा, जहां कोई मन्दिर, चर्च अथवा गुरुद्वारा न हो। यह देख कर अच्छा लगा कि इन धार्मिक स्थलों में दर्शनार्थी सभी तरह के लोग हैं। लक्ष्मीपुर के श्री बलदेव मन्दिर में जाने पर हमें वहाँ की भव्यता के दर्शन भी हुए जो हर प्रकार से मंगलकारी थे।

गांधी आश्रम ट्रस्ट के नोआखाली के पास के 'गांधी स्कूल' में लगभग 450 विद्यार्थी हैं, जिसमे अधिकांश मुस्लिम सम्प्रदाय से ताल्लुक रखते हैं। वहाँ जाकर इन बच्चों से मिलने तथा इनकी एक सभा को सम्बोधित करने का अवसर मिला। सभा का प्रारम्भ बापू की रामधुन से हुआ जिसे सभी बच्चे सस्वर गा रहे थे । ऐसी सभी सभाओ मे हमारा यह आग्रह रहा कि समापन भारत एवं बांग्लादेश के राष्ट्रगान से हो। बांग्ला बच्चे गुरुदेव रबीन्द्र नाथ द्वारा रचित गीत "आमार सोनार बंगला" गाते और हम उन्हीं गुरुदेव का लिखा " जन गण मन" का गान करते। कुमिला में हमें वह जगह दिखाई गई जहां मुस्लिम लोग अलग से दुर्गा पूजा का उत्सव मनाते हैं।

पर इसका दूसरा पहलू भी है, जिसे हम भारत में भी मुस्लिम लोगों के बारे में सवाल खड़ा करके करते हैं कि फलां धर्म की आबादी इस कद्र बढ़ रही है कि मौजूदा बहुसंख्यक आबादी कुछ ही वर्षों में अल्पसंख्यक हो जाएगी तथा दूसरी आबादी बहुसंख्यक।

यह एक ऐसा प्रचार है जो अति साम्प्रदायिक तत्व हौवा बनाने के लिए करते हैं ताकि धर्मान्धता बढ़ती रहे, जबकि जनसंख्या बढ़ने के जो आंकड़े 1947 में थे वे आज भी बदस्तूर हैं। यानी बांगलादेश में हिन्दू आबादी 8.5 प्रतिशत व भारत में मुस्लिम आबादी लगभग 14 प्रतिशत। पर भय एवं अफवाहों के शगूफे दोनो देशों में छोड़े जाते रहते हैं।

एक तथाकथित मुस्लिम विद्वान बहुत ही विश्वास से कह रहा था कि बांगलादेश में यदि इसी तरह हिन्दू आबादी बढ़ती रही तो सन 1925 तक यहाँ वे बहुसंख्या में हो जाएंगे। जब तथ्यों की तफ्तीश की तो पाया कि हाँ यदि आबादी बढ़ी तो बांग्लादेश जो अब हिन्दू प्रतिशत आबादी में दुनिया में पांचवे नम्बर पर है, वह तीसरे नम्बर पर आ जाएगी, परन्तु इस तरह की मनमाफिक व्याख्या दोनों देशों में होती रहती है।

6 दिसम्बर ,1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद सबसे ज्यादा नुकसान हिन्दू मंदिरों एवं अल्पसंख्यकों की सम्पत्ति के नुकसान का हुआ है। जो काम पाकिस्तान शासन नहीं कर पाया वह अब हुआ।

एक जानकारी के अनुसार बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद अकेले बांग्लादेश में अल्पसंख्यक समुदाय के लगभग ढाई हजार मकानों, 3600 पूजा स्थलों को क्षति पहुचाई तथा सैकड़ों लोगों की हत्या हुई, हजारों घायल हुए।

इसके बावजूद भी सामान्य जन में शांति व सद्भाव की आकांक्षा है। वे इसे निहित स्वार्थी लोगों की ही करतूत मानते हैं। जबकि जैसा कि हमारे देश में भी होता है कुछ शरारती लोग सोशल मीडिया में कभी 'मक्का' में शिवलिंग बता कर अथवा ताजमहल को तेजोमय मन्दिर बताकर उन्माद एवं तनाव बढ़ाने की कोशिश करते हैं, जिसे सिविल सोसाइटी के लोग तथा शासन के संजीदा अधिकारी बेहद समझदारी से हल करते हैं।

अच्छा हो सभी इन फिजूल की बातों से उठ कर प्रेम, भाईचारे तथा सदभाव का संदेश दे, इसी से मानवता बचेगी। दोनों देशों में ऐसी ताकते हैं जो अपनी राजनीतिक रोटी ही हिन्दू-मुसलमान की नफरत की आग पर सेंकते हैं, वे यह नहीं जानते कि इस आग से तुम्हारा तो काम बन जाता होगा, पर गरीब का चूल्हे की आग नहीं जलती।

(सुप्रीम कोर्ट में एडवोकेट राम मोहन राय गांधी ग्लोबल फैमिली के महासचिव और एसोसिएशन ऑफ पीपुल्स ऑफ एशिया के समन्वयक हैं।)

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