Begin typing your search above and press return to search.
संस्कृति

मुझमें एक धीमी कांपती हुई रोशनी है

Janjwar Team
12 Jan 2018 8:23 PM GMT
मुझमें एक धीमी कांपती हुई रोशनी है
x

'सप्ताह की कविता' में आज ख्यात कवि मंगलेश डबराल की कविताएं

'मैं एक विरोधपत्र हूं/ जिस पर उनके हस्ताक्षर हैं जो अब नहीं हैंरु मैं सहेज कर रखता हूं उनके/ नाम आने वाली चिट्ठियां/ मैं दुख हूं /मुझमें एक धीमी कांपती हुई रोशनी है...' मंगलेश डबराल की दुख शीर्षक की इस कविता में विचारधारा और उसको जिलाए रखने का करुण प्रयास एक तारे की तरह टिमटिमा रहा है। यहां तारों की मद्धिम आंच है, यह धीमी रोशनी मरती नहीं, करोडों बरस तक। यह कविता का कठजीव है, जिसके प्राण इंतजार में टिमटिमाते रहते हैं। मंगलेश का एक दुख यह भी है जो, मुक्तिबोध को सालता रहता था - ‘जीवन क्या जिया' अपनी एक कविता में मंगलेश इसे इस तरह व्यक्त करते हैं-'कहीं मुझे जाना था नहीं गया/कुछ मुझे करना था नहीं किया...'मंगलेश की विचारधारा की समझ वही है जो शमशेर की ‘वाम दिशा' कविता से लेकर आलोक धन्वा की कविताओं तक का मूल स्वर है।

पिछले दशकों में हिन्दी कविता पर रघुवीर सहाय और केदारनाथ सिंह का घटाटोप छाया रहा। मंगलेश की कविताएं इस घटाटोप को चीर कर शमशेर-मुक्तिबोध-नागार्जुन की कविता पीढी से जुडने की कोशिश करती दिखती हैं। उनकी कई कविताओं में मुक्तिबोध के चित्र आते हैं। ‘मरणोपांत कवि' मे वे लिखते हैं- 'और बीडी का धुंआ भरता रहा/ उसके चेहरे की झुर्रियों में उसकी नौकरियां छूटती रहीं/ और वह जाता रहा बार-बार सभा से बाहर...' मंगलेश की कुछ कविताएं पढते हुए विनोद कुमार शुक्ल और आलोक धन्वा याद आते हैं। उनकी कविता ‘दृश्य' की पंक्तियां हैं -'जिनसे मिलना संभव नहीं हुआ/ उनकी भी एक याद बनी रहती है जीवन में...' शुक्ल की पंक्तियां हैं -'जो मेरे घर कभी नहीं आएंगे/ मैं उनसे मिलने उनके पास चला जाउंगा...' अंत तक पहुंचते पहुंचते ‘दृश्य' कविता में शुक्ल की जगह आलोक धन्वा की चर्चित कविता ‘पतंग' का टोन आ जाता है। मंगल ग्रह के पृथ्वी के पास आने की घटना पर लिखी गई मंगलेश और शुक्ल की कविताओ की तुलना की जा सकती है।

दिल्ली के कवियों की एक मजबूरी हो जाती है कि जनता से बनती दूरी के लिए वे एक विकल्प तैयार करते हैं। रघुवीर सहाय राजनीति को, विष्णु खरे फिल्मों को, मिथिलेश श्रीवास्तव चित्रकला को अपना वैकल्पिक आधार बनाते हैं। अपनी उर्जा के वैकल्पिक आधार के रूप में मंगलेश संगीत को चुनते दिखते हैं। संगतकार, रचना प्रक्रिया, अमीर खां, केशव अनुरागी, गुणानंद पथिक जैसी कविताओं में इसे देखा जा सकता है।

इन कविताओं में मंगलेश दूर के ढोल के सुहावने होने के भीतर की पीड़ा को अभिव्यक्त करते हैं। गुणी ढोलकिया केशव अनुरागी की पीडा को वे इस तरह आवाज देते हैं-'लेकिन मैं हूं एक अछूत, कौन मुझे कहे कलाकार/ मुझे ही करना होगा आजीवन पायलागन/ महाराज, जय हो सरकार...' यह पीड़ा लोकवाद्य बजाने वाले तमाम लोगों की है। ‘संगतकार' कविता में संगीत की दुनिया की परंपरा से चली आ रही खामियों को सामने रखने वाले मंगलेश शायद हिंदी के पहले कवि हैं- तार सप्तक में जब बैठने लगता है उसका गला/ ... तभी मुख्य गायक को ढाढस बंधाता /कहीं से चला आता है संगतकार का स्वर...' आइए पढ़ते हैं मंगलेश डबराल की कुछ कविताएं - कुमार मुकुल

संगतकार
मुख्य गायक के चट्टान जैसे भारी स्वर का साथ देती
वह आवाज़ सुंदर कमजोर काँपती हुई थी
वह मुख्य गायक का छोटा भाई है
या उसका शिष्य
या पैदल चलकर सीखने आने वाला दूर का कोई रिश्तेदार
मुख्य गायक की गरज़ में
वह अपनी गूँज मिलाता आया है प्राचीनकाल से
गायक जब अंतरे की जटिल तानों के जंगल में
खो चुका होता है
या अपने ही सरगम को लाँघकर
चला जाता है भटकता हुआ एक अनहद में
तब संगतकार ही स्थाई को सँभाले रहता है
जैसा समेटता हो मुख्य गायक का पीछे छूटा हुआ सामान
जैसे उसे याद दिलाता हो उसका बचपन
जब वह नौसिखिया था
तारसप्तक में जब बैठने लगता है उसका गला
प्रेरणा साथ छोड़ती हुई उत्साह अस्त होता हुआ
आवाज़ से राख जैसा कुछ गिरता हुआ
तभी मुख्य गायक को ढाढस बँधाता
कहीं से चला आता है संगतकार का स्वर
कभी-कभी वह यों ही दे देता है उसका साथ
यह बताने के लिए कि वह अकेला नहीं है
और यह कि फिर से गाया जा सकता है
गाया जा चुका राग
और उसकी आवाज़ में जो एक हिचक साफ़ सुनाई देती है
या अपने स्वर को ऊँचा न उठाने की जो कोशिश है
उसे विफलता नहीं
उसकी मनुष्यता समझा जाना चाहिए।

नए युग में शत्रु
अंततः हमारा शत्रु भी एक नए युग में प्रवेश करता है
अपने जूतों कपड़ों और मोबाइलों के साथ
वह एक सदी का दरवाज़ा खटखटाता है
और उसके तहख़ाने में चला जाता है
जो इस सदी और सहस्राब्दी के भविष्य की ही तरह अज्ञात है
वह जीत कर आया है और जानता है कि अभी पूरी तरह नहीं जीता है
उसकी लड़ाइयाँ बची हुई हैं
हमारा शत्रु किसी एक जगह नहीं रहता
लेकिन हम जहाँ भी जाते हैं पता चलता है वह और कहीं रह रहा है
अपनी पहचान को उसने हर जगह अधिक घुला-मिला दिया है
जो लोग ऊँची जगहों में भव्य कुर्सियों पर बैठे हुए दिखते हैं
वे शत्रु नहीं सिर्फ़ उसके कारिंन्दे हैं
जिन्हें वह भर्ती करता रहता है ताकि हम उसे खोजने की कोशिश न करें

वह अपने को कम्प्यूटरों, टेलीविजनों, मोबाइलों
आइपैडों की जटिल आँतों के भीतर फैला देता है
किसी महँगी गाड़ी के भीतर उसकी छाया नज़र आती है
लेकिन वहाँ पहुँचने पर दिखता है वह वहाँ नहीं है
बल्कि किसी दूसरी और ज़्यादा नई गाड़ी में बैठ कर चल दिया है
कभी लगता है वह किसी फ़ैशन परेड में शिरक़त कर रहा है
लेकिन वहाँ सिर्फ़ बनियानों और जाँघियों का ढेर दिखाई देता है
हम सोचते हैं शायद वह किसी ग़रीब के घर पर हमला करने चला गया है
लेकिन वह वहाँ से भी जा चुका है
वहां एक परिवार अपनी ग़रीबी में से झाँकता हुआ टेलीविजन देख रहा
जिस पर एक रंगीन कार्यक्रम आ रहा है

हमारे शत्रु के पास बहुत से फ़ोन नंबर हैं, ढेरों मोबाइल
वह लोगों को सूचना देता है आप जीत गए हैं
एक विशाल प्रतियोगिता में आपका नाम निकल आया है
आप बहुत सारा कर्ज़ ले सकते हैं, बहुत-सा सामान ख़रीद सकते हैं
एक अकल्पनीय उपहार आपका इन्तज़ार कर रहा है
लेकिन पलट कर फ़ोन करने पर कुछ नहीं सुनाई देता

हमारा शत्रु कभी हमसे नहीं मिलता सामने नहीं आता
हमें ललकारता नहीं
हालाँकि उसके आने-जाने की आहट हमेशा बनी रहती है
कभी-कभी उसका संदेश आता है कि अब कहीं शत्रु नहीं है
हम सब एक दूसरे के मित्र हैं
आपसी मतभेद भुलाकर
आइए, हम एक ही थाली में खाएँ एक ही प्याले से पिएँ
वसुधैव कुटुम्बकम् हमारा विश्वास है
धन्यवाद और शुभरात्रि।

आदिवासी
इंद्रावती गोदावरी शबरी स्वर्णरेखा तीस्ता बराक कोयल
सिर्फ़ नदियां नहीं उनके वाद्ययंत्र हैं
मुरिया बैगा संथाल मुंडा उरांव डोंगरिया कोंध पहाड़िया
महज़ नाम नहीं वे राग हैं जिन्हें वह प्राचीन समय से गाता आया है
और यह गहरा अरण्य उसका अध्यात्म नहीं उसका घर है

कुछ समय पहले तक वह अपनी तस्वीरों में
एक चौड़ी और उन्मुक्त हंसी हंसता था
उसकी देह नृत्य की भंगिमाओं के सहारे टिकी रहती थी
एक युवक एक युवती एक दूसरे की ओर इस तरह देखते थे
जैसे वे जीवन भर इसी तरह एक दूसरे की ओर देखते रहेंगे
युवती बालों में एक फूल खोंसे हुए
युवक के सर पर बंधी हुई एक बांसुरी जो अपने आप बजती हुई लगती थी

अब क्षितिज पर बार-बार उसकी काली देह उभरती है
वह कभी उदास और कभी डरा हुआ दिखता है
उसके आसपास पेड़ बिना पत्तों के हैं और मिट्टी बिना घास की
यह साफ है कि उससे कुछ छीन लिया गया है
उसे अपने अरण्य से दूर ले जाया जा रहा है अपने लोहे कोयले और अभ्रक से दूर
घास की ढलानों से तपती हुई चट्टानों की ओर
सात सौ साल पुराने हरसूद से एक नये और बियाबान हरसूद की ओर
पानी से भरी हुई टिहरी से नयी टिहरी की ओर जहां पानी खत्म हो चुका है
वह कैमरे की तरफ गुस्से से देखता है
और अपने अमर्ष का एक आदिम गीत गाता है

उसने किसी तरह एक बांसुरी और एक तुरही बचा ली है
एक फूल एक मांदर एक धनुष बचा लिया है
अख़बारी रिपोर्टें बताती हैं कि जो लोग उस पर शासन करते हैं
देश के 626 में से 230 जिलों में
उनका उससे मनुष्यों जैसा कोई सरोकार नहीं रह गया है
उन्हें सिर्फ़ उसके पैरों तले की ज़मीन में दबी हुई
सोने की एक नयी चिड़िया दिखाई देती है
एक दिन वह अपने वाद्ययंत्रों को पुकारता है अपनी नदियों जगहों और नामों को
अपने लोहे कोयले और अभ्रक को बुला लाता है
अपने मांदर तुरही और बांसुरी को ज़ोरों से बजाने लगता है
तब जो लोग उस पर शासन करते हैं
वे तुरंत अपनी बंदूक निकाल कर ले आते हैं।

Janjwar Team

Janjwar Team

    Next Story

    विविध