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जनज्वार विशेष

हाउस वाइफ : मुझे गर्भ गिराने के लिए किसी डॉक्टर के पास नहीं जाना पड़ा

Janjwar Team
20 Dec 2017 6:46 PM GMT
हाउस वाइफ : मुझे गर्भ गिराने के लिए किसी डॉक्टर के पास नहीं जाना पड़ा
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हाउस वाइफ कॉलम में इस बार धनबाद की रुक्मणी देवी

शादी के बाद तमाम खूबसूरत ख्वाबों और अपने हमसफर के साथ के हजारों सपने बुन कोई लड़की ससुराल में प्रवेश करती है। मेरे ख्वाब भी कुछ ऐसे ही थे। थे इसलिए कि वो सिर्फ ख्वाब ही रहे, कभी सच हो ही नहीं पाए।

आज 45 साल की हो गई हूं, अभी तक यह नहीं पता कि मेरा असली घर कौन सा है। वो घर जिसे मैंने 16 साल की उम्र में ससुराल की दहलीज पर कदम रखते हुए छोड़ दिया था, या फिर ये घर जहां मैं 29 सालों से अपनी खून—पसीने की एक—एक बूंद से सींच रही हूं। जहां के लोगों के लिए एक पैर पर खड़ी रही हूं हमेशा, बड़े से लेकर बच्चे तक के सामने हाजिरी देती रहती हूं। किसी को आधी रात को भी जरूरत होती है तो एक बांदी की तरह मुझे उपस्थित होना होता है बिना चेहरे पर कोई सिकन लाए।

जाहिर तौर पर सभी यही कहेंगे कि एक लड़की का ससुराल ही उसका असली घर होता है। शायद यह मेरी ही नहीं, बल्कि मुझ जैसी हर हिंदुस्तानी महिला की कहानी होगी तो खुद से वैसे ही सवाल करती होगी जैसे कि मैं करती हूं।

मेरे तीन बच्चे हैं, जिनमें से बड़ा बेटा 25 साल का हो गया है, छोटा 20 साल का और बेटी 18 की। मगर बाप से लेकर बच्चे तक हर कोई मुझी पर हुकम बजाना जानते हैं। पिता की बात सुन—सुन बच्चे भी मुझसे उसी तेवर में बात करते हैं। कभी किसी संपत्ति को लेकर बात होती है या फिर मायके—ससुराल की बात होती है तो पति ताने देने से नहीं चूकते कि तुम्हारा घर वैसा, तुम्हारा घर ऐसा।

यानी औरत का आज तक कोई घर ही न हुआ। मायके वाले तेरा ससुराल कहते हैं तो ससुराल वाले तेरा मायका। जब से ससुराल में आई हूं तब से अब तक यह अहसास ही नहीं कर पाई कि पति ने मुझे मुफ्त की नौकरानी से ज्यादा कुछ समझा हो। नौकरानी को भी श्रम के बदले मेहनताना मिलता है और औरत को मिलता है दैहिक, मानसिक, शारीरिक प्रताड़ना। कम से कम अपने जीवन में तो मैं यही महसूस कर पाई हूं। हो सकता है बाकी कुछ खुशनसीब औरतों की जिंदगी मुझसे बेहतर होती हो।

मेरे ससुराल में तो मेरी हैसियत हमेशा ऐसी रही कि जिसे पति लात—घूंसों से भी नवाजे तो मुंह से आह नहीं निकलनी चाहिए। अनगिनत बार पिटी हूं पति से छोटी—छोटी बातों पर।

एक बार तो पति ने मुझे उस हालत में सबके सामने पीटा जब बेटी के पैदा होने के बाद मैं फिर से गर्भवती हो गई थी। जब मैंने पति से कहा कि अब हमारे तीन बच्चे हो गए हैं इस बच्चे की देखभाल करने में दिक्कत आएगी, हमें कुछ करना चाहिए। पति ने समाधान के बजाय ऐसा समाधान किया कि अभी तक सोचकर रूह कांपती है।

पतिदेव बड़बड़ाते रहे कि क्यों नहीं तुमने ख्याल रखा कि तुम गर्भवती हो सकती हो। ये तुम्हारी गलती से हुआ है। उनके दिमाग का पारा ऐसा चढ़ा कि मुझ पर लात—घूंसों के रूप में बरसा। उससे भी मन न भरा तो बैल्ट लेकर तब तक मारते रहे जब तक कि मैं अधमरी नहीं हो गई।

हां, इसमें एक बात जरूर अच्छी हुई कि उन्हें गर्भ गिराने के लिए किसी डॉक्टर के पास नहीं जाना पड़ा। उनके मेरी योनि और पेट में पड़ी लातें ही गर्भपात के लिए काफी पड़ीं। मरते—मरते बची थी मैं तब। समझ नहीं पाई हूं कि आखिर वो किस बात का गुस्सा था। उसी हालत में मुझे मायके पहुंचा दिया गया और जब सही हो गई तो घरेलू नौकरानी को मुफ्त की नौकरानी पद पर फिर से नियुक्ति हो गई।

प्रौढ़ावस्था की तरफ बढ़ रहा मेरा शरीर अब थकने लगा है। क्योंकि शरीर की तरफ कभी ध्यान दे ही न पाई। कभी सास—ससुर, ननद—देवरों, जेठ—जेठानियों के बीच हाजिरी बजाते हुए शाम को ध्यान आता था कि अब तक नाश्ता तक नहीं कर पाई तो अब बच्चों और पतिदेव की चाकरी करते हुए। संपन्न ससुराल के बावजूद बच्चों की जच्चगी के समय तक दूध नसीब नहीं हुआ था। मां मेवों के लडडू बनाकर भेजती थी तो वो भी सास—ननदों के हवाले हो जाता। कभी एकाध लडडू मिला होगा चखने के लिए।

एक बार जब बेटी की जच्चगी के बाद मां ने लडडू बनाकर भेजे तो सास ने यह ताने देते हुए डिब्बा अपनी नवप्रसूता बनी बेटी के वहां भिजवा दिया कि तू क्या करेगी खाकर, कौन सा तीन मारा है, बेटी ही तो जनी है। पति ने ऐसे मौकों पर साथ देना तो दूर एक सैनेटरी नैपकिन तक लाकर न दिया होगा।

हां, जहां पर ताने देने होते वहां पर मां—बाप को गालियों से नवाजने और सामान का हिसाब लगाने में वो जरूर आगे रहते। तीन देवरानी—जेठानियों में मेरे पिता की हैसियत थोड़ी कमजोर थी तो त्योहारों के मौकों पर मेरी हमेशा खिल्ली उड़ाई जाती। एक—एक सामान का दाम गिनवाया जाता। वहीं देवरानी—जेठानी के मायके की सास हमेशा कद्र करती, शायद इसलिए कि वो मेरे मुकाबले संपन्न घरों से आती थीं। बाद में तो मैंने मां से कहना शुरू कर दिया कि इन बड़े लोगों के वहां सामान न भिजवाया करें, इन्हें जरूरत नहीं रहती।

मैं भी एक बेटी की मां हूं। चाहती हूं कि जो मैं जिंदगी में झेल रही हूं और झेलती आई हूं, वो मेरी बेटी को न झेलना पड़े। इसीलिए मेरा बेटों से ज्यादा जोर उसकी पढ़ाई पर रहता है। हर बार उसे समझाने की कोशिश करती हूं कि आखिर एक लड़की का अपने पैरों पर खड़ा होना क्यों जरूरी है।

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