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विमर्श

आदमी के अंदर का पानी मरता गया और सूखती गई नैनीताल झील

Janjwar Team
2 July 2017 10:19 AM GMT
आदमी के अंदर का पानी मरता गया और सूखती गई नैनीताल झील
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जो नैनीताल झील करोड़ों भारतीयों की पसंदीदा पर्यटन स्थलों में शामिल रही हो, जहां अनगिनत फिल्मों की शूटिंग हुई हो और जो हजारों युवा दिलों के प्रेम की गवाह बनी हो, वह अगर आज सूख रही है, संकट में है तो उसे बचाने की जिम्मेदारी इकलौते राज्य की नहीं, बल्कि पूरे राष्ट्र की है...

तालों में नैनीताल कहे जाने वाले 'नैनीताल झील' का पानी लगातार कम होता जा रहा है, सूखते तालाब पर 10 महत्वपूर्ण सवालों के साथ नैनीताल समाचार के संपादक राजीव लोचन साह और उनके वरिष्ठ सहयोगी विनोद पांडे की पढ़िये विस्तृत टिप्पणी

नैनीताल के बारे में चिंता तभी जताई जाती है जब कोई बड़ी घटना घटती है। ये कारण कभी भूस्खलन होते हैं तो कभी तालाब का गिरता स्तर। इस साल क्योंकि तालाब का जलस्तर अभूतपूर्व रूप से गिर चुका है तो इस बारे में खोखली बयानबाजी से लेकर वास्तविक चिंताओं और राष्ट्रीय मीडिया में बड़ी-बड़ी रपटों तक सबकुछ हो रहा है।

जिन लोगों को नैनीताल के साथ-साथ अपना भविष्य भी अंधकारमय लगता है, वे चिन्तित हो कर पूछते हैं कि झील की इस बदहाली का कारण आखिर क्या है? क्या अब ताल धीरे-धीरे सूख जायेगा? क्या नैनीताल खत्म हो जायेगा? जो पर्यावरणविद् या तथाकथित विशेषज्ञ हैं उनके पास उत्तर तैयार रहता है- सूखाताल को ठीक कर दो, बाकी सब ठीक हो जायेगा। या ऐसा ही कोई सीधा, रेडीमेड सा उत्तर।

क्या वाकई इतनी ही आसानी से सुलझ सकती है नैनीताल की बदहाली की समस्या?

नैनीताल को लेकर इन दिनों सर्वत्र व्याप्त चिन्ता को देखते हुए उत्तराखंड सरकार ने पिछले महीने झील के रखरखाव की जिम्मेदारी सिंचाई विभाग को दे दी। इसके बाद तमाम अखबारों में और तथाकथित पर्यावरणविदों में इस बात की होड़ लग गई कि कौन सरकार के इस फैसले का श्रेय ले ले।

दैनिक अखबार आगे बढ़-बढ़ कर यह दावा करने लगे कि मुख्यमंत्री ने उनके द्वारा प्रकाशित समाचार का संज्ञान लिया है और पर्यावरणविद् कहने लगे कि नहीं यह उनके द्वारा निरन्तर किये गये प्रयासों का प्रतिफल है।

इस बीच नैनीताल के हालात से चिन्तित कुछ लोगों, जिनमें नैनीताल के स्थायी निवासी कम और नैनीताल में पढ़ाई कर अब बाहर बस चुके लोग ज्यादा थे, ने 3 जून की शाम नैनीताल की मालरोड पर एक ‘बेयरफूट वॉक’ (नंगे पाँव चलना) किया। इसके बाद मुख्यमंत्री ने झील के रखरखाव के लिये तीन करोड़ रुपये देने की भी घोषणा कर दी।

नैनीताल की झील को उपहार में पाकर सिंचाई विभाग गदगद हो गया होगा, परन्तु नैनीताल का आम आदमी सशंकित है। इसकी जड़ में यही तथ्य है कि सरकारों और व्यवस्था से उसका विश्वास उठ चुका है।

लोग देख रहे हैं कि जब भी इस तरह की आपदाएँ आती हैं तो सरकारी विभाग उसका फायदा उठा कर कमीशनखोरी के लिए निरर्थक काम करवा देते हैं। नैनीताल को लेकर भी पिछले दो-तीन दशकों में अनेक बार ऐसा हो चुका है। इससे जमीन पर समस्या सुलझने के बदले और बिगड़ जाती है।

किसी समस्या के समाधान के लिये मर्ज को ठीक से समझना जरूरी है।

यह समझ सरकार में नहीं हो सकती। यह काम हमारे पर्यावरणविदों, जो स्वयं को आंदोलनकारी भी मानते हैं, को करना चाहिये। परन्तु ये लोग अपनी इस जिम्मेदारी पर खरे नहीं उतरे हैं, क्योंकि वे हकीकत से आँखें मूँद कर सिर्फ बयानबाजी करते रहे हैं।

उन्होंने अब तक जो कुछ कहा या किया है, उससे केवल भ्रम पैदा हुए हैं। इन्हीं भ्रमों के साथ हम नैनीताल की समस्याओं को सुलझाने चले हैं।

पहला भ्रम — तालाब महज एक जलाशय है?
तालाब किसी टैंक या बाँध की तरह महज एक जलाशय या पानी का एक भंडार नहीं है। यह एक सम्पूर्ण जीवित पारिस्थितिकीय तंत्र है। उनके भीतर व बाहर कई तरह के जीव होते हैं, जो एक दूसरे के अस्तित्व के लिए काम करते हैं। इस पारिस्थितिकीय तंत्र में जितना अधिक मानवीय हस्तक्षेप होता है, उतना ही यह गड़बड़ाता है। हमें बहुत ईमानदारी से यह मानना चाहिये कि हमारा तालाब बहुत बीमार है। उसका पानी ऊपर से यदि साफ दिख रहा है तो ऐसा इसलिये क्योंकि हमने कृत्रिम रूप से ऐसा किया है।

दूसरा भ्रम- सूखाताल नैनीताल का एकमेव जलागम है?
आजकल हर व्यक्ति कहने लगा है कि सूखाताल नैनीताल का जलागम क्षेत्र है और सूखाताल को ठीक कर दो तो नैनीताल खुद-ब-खुद ठीक हो जायेगा। ताल पानी से लबालब हो जायेगा। यह सच है कि सूखाताल नैनी झील का एक प्रमुख जलागम है और उसे अतिक्रमण से मुक्त करने से नैनीताल को लाभ ही होगा। मगर पूरे विश्वास के साथ तो यह भी नहीं कहा जा सकता कि सूखाताल का समस्त पानी नैनी झील में ही आता होगा। उस क्षेत्र के भूगोल को देखा जाये तो यह भी सम्भव लगता है उसका पानी रिस कर सडि़याताल या खुर्पाताल में भी पहुँचता हो। अन्ततः तमाम विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों के बावजूद हमारी वैज्ञानिक जानकारियाँ तो शून्य हैं। कुछ दशक पहले तक ऐसे चहबच्चों की संख्या बेहिसाब थी, विशेषकर अयारपाटा क्षेत्र में। मगर अब उन पर मकान बन गये हैं या उन पर सीमेंट कर उन्हें कार पार्किंग बना दिया गया है। वैध-अवैध की विडम्बना देखिये कि नैनीताल की महायोजना बनाते वक्त झील विकास प्राधिकरण ने हरीतिमायुक्त, पानी की दृष्टि से बेहद सम्पन्न इस सम्पूर्ण अयारपाटा क्षेत्र को तो निर्माण कार्य के लिये सुरक्षित घोषित कर दिया और अपेक्षाकृत रूखे शेर का डाँडा को ‘ग्रीन बेल्ट’ बना दिया।

तीसरा भ्रम- नैनीताल के जंगल बहुत अच्छी स्थिति में हैं?
नैनीताल बचाने की बात जब भी होती है तो उसमें नैनीताल के वन क्षेत्र का जिक्र नहीं होता। नैनीताल के वनों के बारे में गलतफहमी है कि वे बहुत घने हैं। पर सच्चाई यह है यहाँ की कई मूल प्रजातियाँ या तो लुप्त हो गयी हैं या लुप्त होने की कगार पर हैं, क्योंकि उनका पुनर्जनन नहीं हो पा रहा है। इससे इन वनों ने अपना मूल स्वभाव खो दिया है। पहले वे जिस तरह से जल संरक्षण करते थे और पूरे साल भर जल स्रोतों को जीवित रखते थे, उनकी वह क्षमता अब नष्टप्राय है। इन वनों के गहन अध्ययन की आवश्यकता है। इसके बगैर इन वनों को स्वस्थ बनाने के लिये कोई कारगर कदम नहीं उठाये जा सकते और वनों के स्वस्थ रहे बगैर झील के स्वास्थ्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती। वन विभाग आज विशेषज्ञता विहीन व सबसे भ्रष्ट विभाग है। हमें इन जंगलों को पुनर्जीवित करने के लिये ईमानदार और विशेषज्ञ लोग चाहिये।

चौथा भ्रम- नालों का रखरखाव संतोषजनक ढंग से हो रहा है?
1880 के भू-स्खलन के बाद नैनीताल को बचाये रखने के लिये अंग्रेजों ने तीनों ओर की पहाडि़यों पर नालों का जो संजाल निर्मित किया, उसने अब तक इस शहर को निरापद रखा है। मगर अब लोक निर्माण विभाग ने इन नालों के रखरखाव को एक बहुत बड़े भ्रष्टाचार में तब्दील कर दिया है। रखरखाव के नाम पर प्राप्त होने वाली धनराशि खा-पीकर बर्बाद कर दी जाती है। इनकी सामान्य सफाई तक लोक निर्माण विभाग नहीं करता। वैज्ञानिक दृष्टि से बनाये गये कैचमेंट लापता हो गये हैं। ब्रिटिश काल में बने ये नाले अपने मूल रूप में जमीन की सतह से थोड़ा नीचे धँसे होते थे, ताकि पहाड़ के ढलान का पूरा पानी इनमें समाहित हो जाये और उस जमीन को न काटे, जहाँ पर से वह गुजर रहा है। आज बजट खपाने की दृष्टि से इनमें से अधिकांश नाले ‘नहर’ जैसे बना दिये गये हैं। उनके किनारे अपनी बगल की जमीन से ऊपर उठे हुए हैं, जिस कारण उनके बगल से गुजरने वाला पानी उन नालों में नहीं जाता, बल्कि आसपास की जमीन को काटता चलता है। नालों के कैच पिटों की सफाई, वर्षा जल के प्रवाह की गति को कम करने जैसे प्रयास अब गायब हैं।

पाँचवाँ भ्रम- पैदल मार्गों को सी.सी. कर देने से सुविधा बढ़ी है?
नैनीताल के विकास के नाम पर नगर की लगभग सभी सड़कों को कंक्रीट-सीमेंट, यानी सी.सी. में बदल दिया गया है। किसी समय ये पैदल मार्ग मिट्टी के थे जिनमें बजरी बिछी होती थी। मिट्टी की इन सड़कों द्वारा अवशोषित जल अन्ततः तालाब में पहुँचता था। इन ‘घोडि़या सड़कों’ की विशेषता यह थी कि इनकी ढलान पहाड़ की ओर होती थी और थोड़ी-थोड़ी दूरी पर इनमें पनकट्टे यानी पानी के बहाव को रोकने के लिए आड़े पत्थर लगे रहते थे।

छठा भ्रम- नैनीताल एक साफ-सुथरा शहर है?
नैनीताल की मालरोड पर टहलते हुए अक्सर यह लगता है कि यह एक साफ-सुथरा शहर है। अन्य नगरों की तुलना में ऐसा लगना स्वाभाविक है। मगर वास्तव में इस शहर में कूड़ा निस्तारण की कोई व्यवस्था है ही नहीं। नगरपालिका ने कुछ जगहों पर कूड़ादान जरूर रख दिये हैं, पर उन्हें समय पर न उठाने के कारण वे बदबू फैलाने और कुत्ते व बंदरों के अड्डे बन गये हैं।

सातवाँ भ्रम- यातायात व्यवस्था से नैनीताल का कुछ अहित नहीं है?
नैनीताल नगर में बढ़ते यातायात, विशेषकर छोटी गाडि़यों की लगातार बढ़ती संख्या से लोग थोड़ा परेशान तो हैं, परन्तु इसे नैनीताल के अस्तित्व के लिये खतरा नहीं मानते। जबकि सही मायनों में अनियंत्रित यातायात नैनीताल के लिये भारी-भरकम भवनों से भी ज्यादा खतरनाक है। हमने कमजोर पहाडि़यों पर लगातार भागती गाडि़यों से उत्पन्न कम्पन के दुष्प्रभाव का वैज्ञानिक अध्ययन ही नहीं किया है।

आठवाँ भ्रम- पर्यटन नैनीताल की जीवन रेखा है?
बेशुमार पर्यटकों के आ जाने पर दैनिक अखबार लिखते हैं, ‘‘पर्यटक नगरी गुलजार हुई।’’ चारों ओर कूड़ा पट जाता है, ट्रैफिक इतना हो जाता है कि पैदल चलना दूभर हो जाता है। कई स्थानीय बुजुर्ग हफ्तों-हफ्तों तक घरों से बाहर नहीं निकलते। मीडिया ने भ्रम पैदा किया कि नैनीताल में पर्यटन नहीं होगा तो नैनीताल की अर्थव्यवस्था चौपट हो जायेगी, मगर वह पर्यटन किस तरह से पर्यावरणसम्मत हो, इस पर विचार- विमर्श करने में उनकी कोई रुचि नहीं है।

नवाँ भ्रम- ‘अतिथि देवो भव’….अतिथि देवता होते हैं?
हमारे यहाँ पर्यटक को अतिथि कहा जाने लगा है। परन्तु आपके घर आया जो अतिथि आपके घर के नियम-परम्पराओं को न माने, आपके परिवारजनों से अशोभनीय व्यवहार करे उसे आप क्या कहेंगे? ऐसा ही पर्यटकों के साथ भी है। यदि वे यहाँ आकर प्रदूषण करें, इस नगर की संवेदनाओं को न समझ कर महज एक ऐशगाह समझें कर आयें, क्या उन्हें भी आप ‘देवता’ ही कहेंगे?

दसवाँ भ्रम- हाईकोर्ट शहर को ठीक कर देगा?
ऐसा भ्रम भी कई लोगों को होगा। मगर जिस हाईकोर्ट ने भूमि-भवन अधिग्रहीत करने के मामले में और भारी-भरकम निर्माण कार्य करने के मामले में स्वयं किसी बड़े व्यवसायी जैसी भूमिका अदा की हो, वह नैनीताल की समस्याओं को कैसे सुलझा सकता है? न्यायालय ने नैनीताल को ईको सेंसिटिव जोन घोषित करने के आदेश दे दिये हैं। पर इसके अनुपालन में सरकार ने कुछ किया अभी तक ? न्यायालय ने तो प्रदेश की झीलों को ‘एक व्यक्ति’ का दर्जा दे दिया है, पर सरकार ने इस ‘झील रूपी व्यक्ति’ के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए कुछ किया? अलबत्ता सर्वोच्च न्यायालय में झीलों के इस दर्जे को समाप्त करने की अपील जरूर लगा दी है। न्यायालय प्रभावी रूप से तभी कुछ कर सकता है, जब सिविल सोसायटी भी उसके साथ सक्रिय हो। वह नैनीताल के संवेदनशील मामलों का लगातार अध्ययन करे और उसके लिए दबाव बनाये।

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