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सिक्योरिटी

50 साल में सूख गईं उत्तराखण्ड की 300 नदियां

Janjwar Team
30 Sep 2017 7:31 PM GMT
50 साल में सूख गईं उत्तराखण्ड की 300 नदियां
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68 प्रतिशत भूभाग को संचारित करने वाली गैर हिमानी नदियों एवं हजारों धारे, गधेरे आज अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहे हैं। यह तब हो रहा है जब नदियों के जल संवर्द्धन के लिए कई विभाग कार्यरत हैं...

दिनेश पंत की रिपोर्ट

उत्तराखण्ड में पिछले पांच दशक के दौरान 300 से ज्यादा नदियां और पांच हजार चाल-खाल विलुप्त हो चुके हैं। कई नदियां बरसाती नालों में तब्दील हो गई हैं। कुमाऊं मंडल में कोसी, गगास, गोमती, रामगंगा तो गढ़वाल में नैय्यार सौंग, बाल गंगा, छिवानी, चुद्रभागा जैसी कई नदियां सूख चुकी हैं।

अध्ययनों के मुताबिक नदियों की लंबाई बुरी तरह सिकुड़ रही है और उनका जलप्रवाह भी तेजी से घट रहा है। यदि सिमटती नदियों को पुनर्जीवन नहीं दिया गया तो भविष्य में इसके बहुत बड़े दुष्परिणाम सामने आएंगे।

बरसात में बेशक नदियां खतरे के निशान से भी ऊपर बहतली हों लेकिन सच यही है कि उत्तराखण्ड की जीवनदायनी नदियां अंदर ही अंदर खोखली होती जा रही हैं। सभ्यता की जननी माने जाने वाली ये नदियां आज संकट में हैं। सरकारों की अनदेखी के चलते इनका अस्तित्व ही मिटता जा रहा है।

प्रदेश के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत ने सभी जिलों में एक नदी को पुनर्जीवन देने का जो लक्ष्य तय किया है, उससे उम्मीद लगाई जा रही है कि लंबे समय से बीमार पड़ी नदियों की सेहत में शायद सुधार आए।

प्रदेश सरकार ने इस बार हरेला पर्व की थीम ‘नदियों का संरक्षण एवं पुनर्जीवन’ रख विलुप्त होती नदियों को बचाने की एक कोशिश तो की है, लेकिन प्रदेश में बहने वाली नदियों की स्थिति यह है कि पिछले पांच दशक में 300 से अधिक नदियां एवं 5000 से अधिक चाल-खाल विलुप्त हो चुके हैं।

कुमाऊं मंडल में बहने वाली कोसी, गगास, गोमती, रामगंगा की 11 से अधिक सहायक नदियां तो गढ़वाल मंडल में नैÕयर, सौंग, मंडल, बाल गंगा, सोना, पलेन, हिवानी, लूसर, कोकरा गाढ़, जलकुर जैसी गैर हिमानी नदियां भी पर्याप्त रिचार्ज न होने के चलते एक-एक कर विलुप्त होती जा रही हैं।

पिछले तीन दशक से अधिक समय में प्रदेश की कई नदियां सूख चुकी हैं। नदियों की लंबाई भी लगातार कम होती जा रही है। नदियां किस तेज रफ्तार से सिकुड़ रही हैं इसका अंदाजा अल्मोड़ा जनपद में तेजी से विलुप्त हो रही नदियों से समझा जा सकता है।

आज से पांच दशक पूर्व अल्मोड़ा जनपद में नदियों की लंबाई 1639 किलोमीटर थी जो अब 855 किलोमीटर रह गई है। कई नदियां सूखे बरसाती नदियों में बदल गई हैं।

नेचुरल रिसोर्स डाटा मैनेजमेंट सिस्टम (एनआरडीएमएसा) की एक रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश की तमाम बड़ी नदियों की 332 सहायक नदियां सूखकर बरसाती नदियों में तब्दील को चुकी हैं। कोसी नदी को जोड़ने वाले 36 गाड़-गधेरे सूख गए हैं। मेलनगाड़, छोटी कोसी, जथरागाड़, रनगाड़, देवगाड़, साईनाला, बेनगाड़, जैजलगाड़, सिमगाड़ आदि जो कोसी की सहायक नदियां थी वह अपनी अंतिम सांसें गिन रही हैं।

सेंटर फॉर एक्सीलेंस इन नेचुरल रिसोर्स डाटा मैनेजेंट इन उत्तराखण्ड के निदेशक प्रो. जेएस रावत इस मुद्दे पर कहते हैं, जंगलों की आग से ग्लेशियरों का पिघलने की दर बढ़ना, हिमालय में ब्लैक कार्बन की परत जमना, जैव विविधता गैर हिमानी नदियों के लिए खतरा बने हुए हैं। उत्तराखण्ड का 68 प्रतिशत भूभाग गैर हिमानी नदियों और हजारों सरिताओं (धारे, गाड़-गधेरों) से संचालित होता है। नदियों को बचाने के लिए उत्तराखण्ड रिवर रिजनरेशन आॅथोरिटी जोन बनाने की जरूरत है। उद्गम स्थलों पर ही जैविक एवं यांत्रिक उपाय किए जाने की जरूरत है।

कोसी, गगास, गोमती, रामगंगा के उद्गम धर पानीधर से निकलने वाली 11 सहायक नदियां धीरे-धीरे सिकुड़ रही हैं। इसी तरह पश्चिमी राम गंगा नदी में 134 छोटे गाड़ गधेरे व नदियां सूख चुकी हैं। कोसी की 36, सुयाल की 30, रामगंगा की 134, सरयू नदी की 24, जौंगण की 30, पनार की 32, गगास की 70 सहायक नदियां व गाड़-गधेरे सूख चुके हैं।

ठोस जल नीति न होने के चलते विलुप्त होती गैर हिमानी व उसकी सहायक नदियां लगातार संकट में हैं। ऊपर से जंगल की आग व आपदा ने भी इन गैर हिमानी नदियों की सेहत बिगाड़ने का काम किया है। इन नदियों की जल धारण क्षमता भी न्यून स्तर पर जा रही है।

नदियों का अस्तित्व बचाने के लिए वैज्ञानिक कैचमेंट ट्रीटमेंट को बताते हैं। शोध वैज्ञानिकों का कहना है कि नदी के उद्गम के रिचार्ज जोन पर यांत्रिक एवं जैविक उपचार के बगैर नदियों का अस्तित्व बचाना मुश्किल होगा। एक समय की जीवनदायनी कौशिकी (कोसी) नदी को बचाने के लिए अब विशेषज्ञ कोसी पुनर्जनन प्राधिकरण गठन की मांग कर रहे हैं।

विशेषज्ञों का कहना है कि कोसी नदी मोहान नैनीताल सीमा, काकड़ीघाट, सरयू एवं पश्चिमी रामगंगा मरचूला तक सिकुड़ चुकी है। जबकि आज से पांच दशक पूर्व कोसी (कोशिकी) नदी में 22 सहायक नदियां मिलती थी, तब इसकी कुल लंबाई करीब 225 किलोमीटर के पास थी। लेकिन आज यह 41 किलोमीटर ही रह गयी है।

अकेले कोसी नदी के जल स्तर को देखें तो 1992 में इसका वाटर फ्लो मई जून में 790 लीटर होता था, जो अब 196 लीटर से नीचे रह गया है। जबकि इस नदी पर 343 से अधिक गांव निर्भर हैं। अल्मोड़ा नगर पूरी तरह से इसके पानी पर जिंदा है। इसके अलावा कौसानी, चनौदा, ताकुला, सोमेश्वर, कोसी, हवालबाग, गेवापानी, दौलाघाट, गोविंदपुर, कठपुड़िया, द्वारसौ, शीतलाखेत जैसे पर्यटक स्थल भी इस पर निर्भर रहे हैं।

पेयजल की तीन लिफ्टिंग योजनाओं साहित कई पानी की योजनाएं भी इसी नदी पर बनी हुई हैं। इसी के आसपास 183 हैंडपंप तो करीब 66 किलोमीटर की 33 सिंचाई योजनाएं स्थित हैं जो करीब 643 हेक्टेयर खेतों की प्यास बुझाती हैं।

15 लिफ्ट सिंचाई योजनाएं व 21 हाइड्रम भी इसी पर निर्भर हैं। कोसी को रिचार्ज करने के लिए धरपानीधर (पीनाथ) से जो 11 नदियां निकलती हैं वह गर्मियों में सूख जाती हैं। इसी तरह कौसानी, बिनसर, गणानाथ सहित 16 रिचार्ज जोन भी संकट में हैं जिससे कौशिकी पर संकट आ गया है।

कोसी की सहायक नदी कुजगढ़ रोखड़ में तब्दील हो गई है। एक समय कुजगढ़ घाटी बैना, कोटाड़, स्यों, गैरड़, ऊंडी, कोठिया, टाना, कोरड़, तिपौला, टूनाकोट, चापड़ आदि गांवों की जमीन की सिंचाई करती थी। कुजगढ़ बिनसर (ताड़ीखेत) के देवलीखेत पहाड़ी एवं सौनी बिनसर से निकल कर खैरना में कोसी नदी में मिलती है।

इसके आसपास पहले बहुत से घराट थे। खेत सिंचित होते थे, लेकिन अब घराट खंडहर में तब्दील होने लगे हैं तो वहीं उपजाऊ खेत बंजर में तब्दील होने लगे हैं। बागेश्वर में सरयू एवं गोमती जैसी जीवनदायनी नदियों में सीवर का गंदा पानी इनकी सेहत खराब कर रहा है।

जनपद के गरूड़ में बहने वाली गरूड़ गंगा भी लुप्त होने के कगार पर है, जिसके चलते दर्जनों गांवों का अस्तित्व खतरे में है। गरूड़ गंगा जलागम क्षेत्र में 15 से अधिक गांव निर्भर हैं। संकट कोसी नदी का ही नहीं है, बल्कि ऋषिकेश में चंद्रभागा, रूड़की में सोलानी, नैनीताल में कोकड़झाला, पौड़ी में हिंवल जैसी नदियां सूख चुकी हैं।

विशेषज्ञ कहते हैं कि 68 प्रतिशत भूभाग को संचारित करने वाली गैर हिमानी नदियों एवं हजारों धारे, गधेरे आज अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहे हैं। यह तब हो रहा है जब नदियों के जल संवर्द्धन के लिए कई विभाग कार्यरत हैं। तमाम जलागम योजनाओं के बाद भी जलागम क्षेत्रों में कैचमेंट ट्रीटमेंट के काम नहीं हो पा रहे हैं। सड़कों के निर्माण के चलते नदियों में प्रतिदिन हजारों टन मलबा समा रहा है।

नदियों में गाद समाती जा रही है। इसके चलते नदियों का प्रवाह निरंतर प्रभावित हो रहा है। प्रवाह प्रभावित होने से इसके किनारे बसी सैकड़ों बस्तियां खतरे में हैं। सड़क निर्माण के दौरान भी लापरवाही से पूरा मलबा नदियों में फेंक दिया जाता है। लोकनिर्माण विभाग एवं अन्य एजेंसियां इस मामले में अपनी कोई जिम्मेदारियां नहीं समझती न ही उनकी कोई जिम्मेदारियां तय की गई है।

अकेले सड़क निर्माण के चलते पिथौरागढ़ जनपद की रामगंगा, काली, धौलीगंगा, मंदाकिनी व इसकी सहायक नदियां मलबे से पटती जा रही हैं। नमामि गंगे अभियान का यहां कोई मायने नहीं है। अवैज्ञानिक तरीके से मलबे के निस्तारण से बरसात काल में यह नदियां अपना प्रवाह बदल देती हैं। कहने को तो मलबा डंपिंग के अपने नियम हैं। विभाग सीधे नदियों में मलबा नहीं डाल सकते उन्हें इसके लिए डंपिग यार्ड बनाना होता है। लेकिन पर्वतीय क्षेत्रों में सड़कों का मलबे नदियों में ही देखा जा सकता है।

डंपिंग यार्ड भी कोई चीज होती है यह आज तक कहीं देखने को नहीं मिली। पिथौरागढ़ में नदियों के किनारे बसे बस्तियों की स्थिति को देखें तो रामगंगा नदी के किनारे तेजम, नाचनी, नौलड़ा, मुवानी, थल, गोरी नदी के किनारे दुम्मर, मदकोट, भदेली, देवीबगड़, सेराघाट, बंगापानी, छोरीबगड़, लुम्ती, बरम, जौलजीवी, तोली, गर्जिया तो काली नदी के किनारे पांगला, तवाघाट, खोतिला, एनएचपीसी कालोनी, धारचूला, गोठी, गलाती, नया बस्ती, छारछुम, बलुवाकोट, जौलजीवी, तीतरी, द्वालीसेरा, अमतड़ी, तालेश्वर, झूलाघाट, बलतड़ी, पंचेश्वर तो वहीं धौली नदी के किनारे सोबला, कंच्यौती, खेत, कोकलखेत, तवाघाट की बस्तियां बरसात में नदियों के प्रवाह बदलने से खतरे की जद में रहती हैं।

वर्ष 2013 नदियों के रास्ता बदलने से इन बस्तियों को खासा नुकसान पहुंचा था। मलबे के अलावा पहाड़ की जीवनदायिनी नदियों में कूड़ा निस्तारण एवं सीवर इनके जीवनरेखा को निरंतर कमजोर कर रहा है। चंपावत जनपद के लोहाघाट में बहने वाली पंचेश्वर महाकाली, सरयू नदी, लोहावती नदी के अलावा छोटी बड़ी नदियां एवं गधेरे बुरी तरह प्रदूषित हो चुके हैं।

हालात यह हैं कि कुमाऊं की नदियों का पानी पीने लायक नहीं रह गया है। पीसीबी के अनुसार अगर नदियों का ट्रीटमेंट भी हो जाए तो वह पीने लायक नहीं रह गई हैं।

उत्तराखण्ड पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (पीसीबी) द्वारा नदियों में प्रदूषण की स्थिति को जांचने के बाद दिए आंकड़े कहते हैं कि कोसी, धेला, बेहला, पिलकर, नंधौर, किच्छा, नैनीताल लेक, भीमताल पीसीबी की ई श्रेणी में है जिसका मतलब है कि इसके पानी का उपयोग केवल सिंचाई के लिए किया जा सकता है। भविष्य में एक बड़ा खतरा जो वैज्ञानिक बताते रहे हैं वह है भूकंप।

अगर कभी भविष्य में भूकंप आता है तो वैज्ञानिकों के अनुसार नदियां अपना रास्ता बदल देंगी। ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी आॅफ एडिगवर्ग के शोधकर्ताओं के मुताबिक इस क्षेत्र में भूकंप से विशालकाय पत्थर एवं शिलाखंड यहां से निकलने वाली नदियों की धारा को अवरुद्ध कर सकते हैं। नदियां अपने मार्ग से विचलित होकर मैदानी इलाकों में बाढ़ का खतरा पैदा कर सकती हैं।

नेचर जर्नल में प्रकाशित शोधों में कहा गया है कि नदियों के साथ मैदानी इलाकों में बहकर आने वाले पत्थर नदी में जमा हो रहे हैं। धीरे- धीरे ये नदियों का प्राकृतिक रास्ता अवरुद्ध कर उनकी दिशा बदल देंगे। ऐसे में नदी किनारे बसे गांवों और शहरों में भीषण बाढ़ आ सकती है जिसकी वजह ये पत्थर बनेंगे।

वैज्ञानिकों का कहना है कि उत्तरी हिमालय के पर्वतों से निकलने वाले पत्थर दक्षिणी पर्वतों की तुलना में कम सख्त होते हैं। इन्हें मैदानों तक पहुंचने के लिए तकरीबन सौ किमी का सफर करना पड़ता है। ऐसे में यह पत्थर मैदानों तक आने में रेत में तब्दील हो जाते हैं। छोटे पत्थरों की तुलना में रेत नदी के बहाव के साथ आगे चलती जाती है।

हिमालय के उत्तरी पर्वतों की अपेक्षा कम ऊंचाई वाले दक्षिणी पर्वत क्षेत्र में भूस्खलन की घटनाओं से बाढ़ आने का खतरा ज्यादा है। यहां की चट्टानें बेहद कठोर हैं और उन्हें मैदानी इलाकों तक पहुंचने में 20 किमी से भी कम दूरी तय करनी पड़ती है। यहां से निकलने वाला क्वार्टजाइट पत्थर मैदानों तक पहुंचते हुए कंकड और छोटे पत्थरों में बदल जाता है। यह कंकड़ नदी में जमा होते जाते हैं। यही जमाव एक दिन नदी के मार्ग बदलने की वजह बन सकता हैं नदियों के किनारे आबादी भी बड़ा खतरा बनी हुई है।

खत्म होती नदियों के बारे में जल पुरुष राजेंद्र सिंह कहते हैं, सरकारों के पास नदियों के बारे में जानकारी का ही अभाव है। नदियों के ब्ल्यू जोन, ग्रीन जोन व रेड जोन पर निर्माण रोके जाने की आवश्यकता है।

(दिनेश पंत की यह रिपोर्ट साप्ताहिक अखबार संडे पोस्ट में प्रकाशित है।)

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