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जनज्वार विशेष

वन निगम एक ही शर्त, ठेका उसी कंपनी को जो अधिकारी के मन को भाए

Janjwar Team
5 Oct 2017 10:55 AM GMT
वन निगम एक ही शर्त, ठेका उसी कंपनी को जो अधिकारी के मन को भाए
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पिछली रिपोर्ट 'उत्तराखंड वन निगम को लूट रहीं एक ही ग्रुप की तीन कंपनियां' में हमने उजागर किया कि पारदर्शिता और नियम—मानकों की चादर ओढ़ा किस तरह एक ही समूह की तीन फर्मों को ही ‘उत्तराखण्ड वन विकास निगम’ एक आईएफएस (जिसका नाम जब्बर सिंह सुहाग बताया जा रहा है) के इशारे पर सीधा लाभ पहुंचाया जाता रहा है। वन विकास निगम के कर्मचारियों का कहना है कि उक्त आईएफएस अधिकारी जब से यहां प्रतिनियुक्तियों पर आए हैं, तभी से इस तरह की ढेरों असंवैधानिक गतिविधियों से कुछ एक फर्मों ने करोड़ों के वारे-न्यारे किए हैं।

पढ़िए संजय रावत की इसी रिपोर्ट की अगली कड़ी

पिछली रिपोर्ट में खुलासा किया था कि इलेक्ट्राॅनिक मापतोल कांटों में घाटे के बावजूद करोड़ों के वारे-न्यारे कैसे होते हैं, पर पड़ताल में पहली कड़ी को विस्तार देने वाले तथ्यों का खुलासा भी हो गया (अब वो रिपोर्ट आगे आने वाली कड़ियों में), जिसमें पता चला कि इस समूह की एक और फर्म है जिसका नाम है ‘ओम गुरू ट्रेडर्स’।

इस फर्म का संचालन भी उक्त समूह के एक व्यक्ति द्वारा किया जाता है, जिसका नाम है राजू जोशी। राजू जोशी की यह फर्म ‘उत्तराखण्ड वन विकास निगम’ के उन सारे टेंडरों में प्रतिभाग करती और उन्हें हासिल भी करती है जिसकी योग्यता से राजू जोशी का दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। इनकी ‘ओम गुरू नामक ट्रेडर्स’ फर्म निगम के टेलीकाॅम और आर.एफ.आई.डी. (रेडियो फ्रिकवैंसी आईडैंटिटी डिवाइसद्) के ठेके उन फर्मों के मुकाबले आसानी से हासिल कर लेती है, जिनके रेट (दरें) इनसे बहुत कम होते हैं।

टेण्डर योग्यता की शर्तें
यहां भी टेण्डर योग्यता की वही शर्तें हैं, जैसे इलेक्ट्रॉनिक मापतोल कांटों की होती है, यानी वही कि - योग्यता की नियम शर्ते ही ऐसी बनायी जाती हैं जिससे ठेका सिर्फ ‘ओम गुरू ट्रेडर्स’ को ही मिलता है। एक आईएफएस अधिकारी की रहनुमाई में पारदर्शी दिखने वाले खेल में आराम से दूसरी फर्मों को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है।

मिलीभगत नहीं तो और क्या है ‘जब्बर’
उत्तराखण्ड में जबसे ‘ई-रवन्ना’ प्रणाली अस्तित्व में आयी है तब से तीन चीजों ने और अपने आप अपनी जगह बना ली। जिसमें पहला है आर.एफ.आई.डी चिप, दूसरा है सी.सी.टी.वी. कैमरे और तीसरा है उनकी कनेक्टिविटी के लिये लगाये जाने वाले टेलीकाॅम टाॅवर। ये तीनों ऐसी चीजें हैं जिनका ‘खनिज-उपखनिज’ चोरी की रोकथाम के लिए इस्तेमाल किया जाता है, पर हैरानी होती तो है ये जानकर कि निकासी गेट तक कोई भी गाड़ी खनिज चोरी में अब तक नही पकड़ी गयी।

खनिज चोरी, ओवर लोडिंग या बिना रवन्नों के जो भी गाड़ियां पकड़ी जाती हैं वो सब निकासी के बाहर ही पुलिस या वन विकास निगम खानापूर्ति के लिये पकड़ते रहते हैं। यानि कि इन आधुनिक तकनीकों का फायदा ‘उत्तराखण्ड वन विकास निगम’ को ना होकर उक्त फर्म और खेल में शामिल अधिकारियों का ही होता है।

कैसे होता है टेलीकाॅम टाॅवर और आरएफआईडी चिप से खेल
पहले ये देखना होगा कि किसी आईएफएस अधिकारी के विवेक का कैसे अंदाजा लगाया जाये। जब्बर साहब के विवेक अंदाजा इस बात से लग सकता है कि टेलीकाॅम टाॅवर के लिए किसी टेलीकाॅम कंपनी (जैसे बीएसएनएल या और कुछ) को टेंडर में आमंत्रित करते पर नहीं, उनको खेल ही इससे खेलने थे। एक ऐसे ही व्यक्ति की फर्म ठेका दे दिया जो न तो इलेक्ट्रानिक इंजीनियर है, ना टेलीकाॅम तकनीक की उसे कोई जानकारी है। ऊपर से उसकी दरें सबसे ज्यादा है।

खैर, खनन सत्र चलता है अक्टूबर से मई माह तक, यानी कुल 8 माह और टावर एक बार नदी में स्थापित हो गए तो हटते नहीं है। जबकि निगम 8 माह की अवधि के लिए ही लीज पर देता है, पर यहां अतिरिक्त 4 माह का किराया नहीं लेता। टावर 4 माह के लिए उक्त स्थान से हटाए भी नहीं जाते है। क्योंकि अगला टेण्डर भी ‘ओम गुरू ट्रेडर्स’ को देना सुनिश्चित जो है।

यहां पर उल्लेखनीय है कि गौला नदी और मापतोल काॅटो में लगे सीसीटीवी कैमरे कुछ नहीं दिखाते, क्योंकि उन पर ‘मोबिल आॅयल’ लगा कर धूल पोत दी जाती है। दिखावे के लिए लगाए गए टाॅवर सीसीटीवी कैमरों की तरह आरएफआईडी चिप के भी कोई मायने नहीं है। मायने है तो उक्त फर्म और खेल में शामिल अधिकारियों के लिए।

अब देखिए गौला नदी में 7,500 वाहन पंजीकृत हैं, जिन पर आर.एफ.आई.डी. चिप लगायी जाती है। एक वाहन एक चक्कर ही लगाए तो 10 रुपए प्रति चक्कर के हिसाब से 7500 वाहनों के (एक चक्कर के) दाम हुए 75,000 (पिचहत्तर हजार रूपए), माह के हुए 22,50,000 (बाइस लाख पचास हजार) और वर्ष भर के हुए (8 माह कार्य अवधि के हिसाब से) एक करोड़ 80 लाख।

इतनी बड़ी रकम की उगाही के पीछे उत्तराखण्ड सरकार का नजरिया यह था कि इसे गौला मजदूरों के कल्याण में लगाया जाएगा। मसलन उनके बच्चों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, वगैरह—वगैरह जिसमें शौचालय, कम्बल, कपड़े, जूते, सुरक्षा-यंत्र आदि भी शामिल हैं। पर इतनी बड़ी रकम मौके पर कहीं खर्च होती नजर नहीं आती। नजर आती है तो सिर्फ कागजों में।

कागजों में आपको 18 करोड़ का हिसाब दिखा दिया जाएगा। अब आसानी से समझा जा सकता है कि इतनी बड़ी रकम को ठिकाने लगाने के लिए कैसे कैसे कुचक्र रचे जाते हैं। इसीलिए एक ही समूह विशेष की फर्मों से ये सारे काम 'उत्तराखण्ड वन विकास निगम' द्वारा कराए जाते हैं।

इस मामले में क्या कहते हैं गौला मजदूर संघर्ष समिति के अध्यक्ष
गौला खनन मजदूर संघर्ष समिति के अध्यक्ष राजेन्द्र सिंह बिष्ट कहते हैं, गौला मजदूरों के वाहन स्वामियों से उगाई जाने वाली रकम में से मजदूरों के कल्याण के लिए कुछ भी नहीं किया जाता है। पहले जो छुटपुट दिया जाता था वो भी नहीं मिलता। पहले महिला मजदूरों को देर—सबेर धोतियां दी जाती थी अब वो भी पुरुषों वाली धोतियां दी जाने लगी हैं, जो समय पर नहीं मिलती। मास्क के नाम पर 2 रुपए का चीथड़ा थमा दिया जाता है। एक दिन में फट जाने वाले जूते मजदूर खुद ही नहीं पहनते। शिक्षा, चिकित्सा तो दूर की बात कई निकासी गेटों पर पानी और शौचालय की व्यवस्था ही नहीं है। पहले अलाव या चूल्हे के लिए लकड़ियां मिलती थी वो भी ये खुद खा जाते है। अंदाजा लगाइए कि गौला में मजदूरों का रजिस्ट्रेशन तक समय पर नहीं होता। पंजीयन फार्म में फोटो लगाने के लिए भी उन्होंने अपना फोटोग्राफ रखा है उसी से फोटो खिचवानी होती है। ये है असल रूप मजदूरों की कल्याणकारी योजनाओं का।

अगली कड़ी में उजागर करेंगे कि मापतोल कांटो के इसी तरह के कैसे खेल होते है।
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